Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Others

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

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मैं व्यथित हूँ (2)….

मैं व्यथित हूँ (2)….

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रोना बंद हो जाता है। अश्रु, पोंछ लेने होते हैं। अश्रु, रोक भी लेने होते हैं। फिर भी मन अत्यंत दुखी रहा आता है। मातम के दिनों में हम सोचते हैं कि जीवन ऐसा है तो हमें क्यों जीना चाहिए। फिर भी कितनी ही घोर निराशा आ जाए, जीवन जीने की भावना रही आती है। बिरला कोई आत्महत्या का विचार करे भी तो उसके अन्य परिजन-मित्र उसे मरने नहीं देते हैं।  

कल रात्रि 8.30 बजे, रचना ने कॉल किया था। रिप्लाई उसी बेटी ने किया था। अब वह रो नहीं रही थी। रचना ने संवेदना प्रकट करते हुए पूछा - "मुन्नी, मम्मी कैसी हैं, क्या वह बात कर सकती हैं?"

मुन्नी ने कहा - "आंटी, मम्मी सो गई हैं। "

यह समझ आता था। पिछली रात उन पर अभूतपूर्व विपत्ति आई थी। उनके दिन भर मातम और रोने के बीच भी (पति) शमीम भाई, सुपर्दे खाक के लिए ले जाए गए थे। उन्हें, 27-28 वर्षों से हृदय में जगह दी रखी थी। उनकी हर इच्छा, आदेश और पसंद को अपने सिर पर लिए रखा था। उन्हें खाक में मिलाने ले जाने को कैसे स्वीकार करतीं। चुक गई शक्ति और साहस से सबके बीच उन्होंने, उठते जनाजे को रोक लेना चाह था। जनाजे को उठा रहे हाथों को, उठाने से रोकने बीच में आ खड़ी हुईं थीं। ध्यान नहीं था कि हमेशा सिर और कानों को ढ़की रहने वाली ओढ़नी खिसक गई थी। उनके मातमी विलाप के बीच अन्य औरतों, बेटियों एवं बेटों ने उन्हें पीछे खींच लिया था। जिनके होते दुनिया जीत लेने का बोध था, उनके जाते ही दुनिया हार गईं हैं, यह बोध रह गया था। तब कमरे में आकर वे इस बोध से अशक्त फर्श पर ही पड़ गईं थीं। 

रचना ने कहा - "अच्छा है मुन्नी, मम्मी सो गईं हैं तो भीषण वेदना कुछ समय दूर रहेगी। तुम भी अपने को सम्हालो। सब मिलकर मम्मी का ख्याल रखो। "

यह ऐसा विकट समय होता है जिसमें अधिक कुछ कहा नहीं जाता है। शब्द मौन हो जाते हैं। रचना ने कॉल खत्म कर दिया था। सन 2010 में, जबलपुर की प्राइम लोकेशन सदर बाजार से सिर्फ 350-400 मीटर दूर पॉश लोकैलिटी में मैं सपरिवार, किराए के घर में रहने पहुँचा था। पास पड़ोस में सब गणमान्य लोग, स्वयं अपने मालिकाना घरों में निवास करते थे। अपनी व्यस्तताओं में वे होते, मैं भी अपने विभागीय दायित्वों के निभाते हुए समय पाबंदी से कार्य पर जाता और देर शाम या रात में अत्यधिक थका हुआ (डेड टायर्ड) घर लौटता था। रचना, गृहस्थी और बड़ी बेटी अध्ययन में व्यस्त रहते थे। तब मेरी महीनों तक, पास-पड़ोस में कोई जान पहचान नहीं हुई थी। 

दस वर्ष पहले से ही प्रातः कालीन भ्रमण, मेरी नियमित दिनचर्या का अंग था। भ्रमण पर या ऑफिस जाते आते, सोसाइटी की सड़क, जिसका एक सिरा डेड एन्ड था, पर कुछ बच्चे खेलते या स्कूल जाते आते, मुझे दिख जाया करते थे। इसी में मेरा ध्यान गया था, नफीसा पर, तब शायद वह आठ नौ बरस की रही होगी। उसके मुख से शब्द नहीं, विचित्र सी ध्वनि निकलती सुनाई पड़ती थी। बाद में किसी दिन मुझे, अपनी बेटी से पता चला था कि नफीसा जन्म से ही सुनने, बोलने में असमर्थ है। इस जानकारी से मेरा हृदय द्रवित हुआ था। मैंने सोचता रहा था - 

ईश्वर भी कभी कभी कितना निर्मम होता है। उसने सुन्दर सी इस बच्ची में इतनी बड़ी कमी दे दी है। इस मासूम, निर्दोष बेटी का भविष्य क्या होगा? इस तरह से असमर्थ यह बेटी, पड़ोस के मुस्लिम परिवार की थी। 

मैं अपनी लिखूँ तो मैं, जैन कुल में जन्मा था। म.प्र. के वारासिवनी कस्बे में हमारा परिवार, जैन मोहल्ले में निवास करता था। इस मोहल्ले में प्रमुखतः जैन धर्म अनुयायियों के अतिरिक्त कुछ ब्राह्मण, रूसिया, अग्रवाल और ठाकुर परिवारों के घर थे। अपने लड़कपन में मैं, अपनी मम्मी को कहते हुए सुनता था कि हमारा जैन धर्म सबसे श्रेष्ठ है जो “जियो और जीने दो” के सिद्धांत को मानता है। 

यह मैंने भी बाद में समझा था कि हर मनुष्य और प्राणी जीने की अभिलाषा रखता है। हर कोई पूरे जीवन, अपना जीवन सुरक्षित रखने के लिए उपाय और पुरुषार्थ करता रहता है। तब मुझे भी “जियो और जीने दो” का सिद्धांत निर्विवाद रूप से श्रेष्ठतम लगने लगा था। 

मेरे जीवन के बड़े समय तक, मेरा करीबी कोई मुस्लिम व्यक्ति नहीं था। तब भी नफीसा को लेकर मेरे मन में सहानुभूति उत्पन्न हुई थी। ऐसे में, रास्ते में पड़ने वाले उसके घर की तरफ, जाते-आते हुए मेरी दृष्टि चली जाती थी। 

जब ईद आती तो मुझे उसके घर एक बकरा मिमियाते हुए बंधा दिखाई देता था। यह ईद के बाद दिखना बंद हो जाता था। मेरे रहे संस्कार के कारण, मुझे उसके मार दिए जाने की सच्चाई बोध से, मेरा हृदय वितृष्णा से भर जाया करता था। 

ऐसे बीतते दिन और वर्षों में, मुझे स्मरण नहीं रहा कि कब मैंने नफीसा को, दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन करना शुरू कर दिया था। वह छोटी बच्ची, संकोच में पहले पहले अपनी आँखों में प्रश्न लिए, मुझे देखते रह जाती थी। फिर किसी दिन से उसने मेरे अभिवादन का उत्तर, अपने हाथ जोड़कर देना आरंभ कर दिया। बाद में इस सिलसिले में और बदलाव आया था। अब इस मुद्रा में, हँसते हुए अभिवादन करने की पहल, नफीसा की ओर से होने लगी। 

नफीसा अब बड़ी हो रही थी। नफीसा के घर के सदस्य और मोहल्ले में अन्य अनेक, हममें यूँ होते अभिवादन को देखने-जानने लगे थे। फिर भी मुझे परवाह नहीं थी कि इसे लेकर लोग क्या सोचते हैं। कुछ वर्ष यहाँ रह चुकने से यदा कदा मेरी थोड़ी बोलचाल एवं पहचान, यहाँ निवासरत पड़ोसियों से हो गई थी। 

मुझे स्मरण है कि वह तारीख 21 मई 2017 थी। भीषण गर्मी के दिन थे नित्य प्रातः कालीन भ्रमण के क्रम में, उस दिन मैं सुबह सवा पाँच बजे घर से निकला था। तब यह देख मुझे आश्चर्य हुआ कि इतनी सुबह, नफीसा अपने घर के दरवाजे पर खड़ी थी। उसे देख मैंने हाथ जोड़े तो, उसने भी हाथ जोड़े थे मगर उसके मुख पर की सहज मुस्कान नदारद थी। मैंने सोचा अभी ही जागने से शायद वह पूरी तरह चैतन्य नहीं हुई है। मेरे कदम भ्रमण पर बढ़ गए थे। भ्रमण उपरान्त आकर, मैं घर के सामने खड़ी अपनी कार को कपड़े से साफ कर रहा था। तब मेरी दृष्टि सड़क पर गई थी। मैंने देखा कि नफीसा मुझे, हाथ हिलाकर बुला रही है। मैंने हाथ का इशारा, ‘क्या है?’ वाले भाव से किया था। 

नफीसा, अपने पेट पर हाथ रखकर और अपने घर की तरफ इशारा करते हुए कुछ बताने का यत्न कर रही थी। मुझे कुछ समझ नहीं आया था। तब भी मैंने शंकित होते हुए, अपने कदम उसके घर की तरफ बढ़ा दिए थे। 

मुझे अपनी तरफ आता देख वह अपने घर में भीतर चली गई थी। पीछे जाकर मैंने दरवाजे पर नॉक किया था। तब मिनट भर में, नफीसा का छोटा भाई दरवाजे पर आया था। उसने मुझे अंदर आने को कहा था। फिर भाई भी, मुझसे बिना कुछ कहे कमरे में चला गया था। मैंने देखा, जहाँ मैं खड़े रह गया था वह खुला आँगन था। आँगन में कुछ फाइबर कुर्सी रखी हुई थीं। विस्मय की स्थिति में, उनमें से एक पर बैठकर, मैं अनुमान लगाने लगा था कि बात क्या हो सकती है …. 


हवा नहीं, 'गैर मुस्लिम-मुस्लिम' 

उसे लेते छोड़ते यह भेद क्यों करते हो?

जल नहीं होता 'पुरुष-नारी',

उसे पी पी कर यह भेद क्यों करते हो?

जीवन मिला तुम्हें मनुष्य का तो

मानवता से क्यों नहीं जिया करते हो?

धरती पर नहीं कोई भेदभाव लकीरें

खींचकर तुम, क्यों देश-विदेश करते हो?

पैसे-रूप के किस्से छूट सब जाते यहीं पर

तुम क्यों फिर किसी को हीन देखा करते हो?

औरों के दिल को समझने की मिलती गर फुरसत 

तुम्हें अपने समान अरमान दिख जाते उनके भी

जन्म और मृत्यु सब में लक्षण एक से 

फिर भी धर्म, तेरा-मेरा क्यों करते हो?

स्वयं जियो - उसे भी तुम जी लेने दो ना

तुमसा ही जीवन तो उसे मिला होता है.


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