Find your balance with The Structure of Peace & grab 30% off on first 50 orders!!
Find your balance with The Structure of Peace & grab 30% off on first 50 orders!!

इच्छित जी आर्य

Others

4  

इच्छित जी आर्य

Others

लठैत का दिल

लठैत का दिल

13 mins
541


भला ऐसे कैसे कुबूल कर लें?पर सच, बात तो बिल्कुल यही थी!


सादे बुशर्ट-पैण्ट के कपड़ों में इतनी ज्यादा शालीनता भरी हुई... जैसे बिल्कुल टपकने को तैयार। महाशय इतने हौले से आकर हमारे बगल में बैठे कि एक बार को तो पता ही नहीं चला कि कोई आकर भी बैठा है।


रेलगाड़ी के सफर में वैसे कोई बैठने वाला होता है, उससे पहले ही पता चल जाता है। जगह खाली देखकर आखिर बंदे को पूछना ही पड़ता है, भाईसाहब कोई बैठा तो नहीं है? ऐसे जनसंख्या वाले जमाने में बैठने की जगह खाली देखना, अन्दर कुछ ऐसी कुलबुलाहट भर देता है कि सवाल पूछना बड़ा लाजिमी बन पड़ता है। सवाल पूछा गया, तो फिर जवाब देना प्रश्न प्राप्तकर्ता का धर्म होता है। लगभग सभी ने धर्म निभाया होगा आज तक। लेकिन ऐसा तो दो-एक बार ही गिनकर हुआ होगा कि कोई ये कह दे-

‘‘हाँ जी! जगह खाली है, आप बैठ सकते हैं।’’

भला कोई क्यों बैठे-बिठाये फैलकर बैठ सकने लायक जगह को गँवाने की मूर्खता दिखाये!


पूछने वाले पूछते तो जरूर हैं, पर शातिर इतने कि जवाब का जरा इन्तजार नहीं करते। सवाल के साथ ही साथ स्वतः ही अपने अगले शब्दों का शबाब भी जोड़ लेते हैं-

‘‘कोई बात नहीं, जब आयेंगे, खुद ही उठ जाऊँगा। जब तक नहीं आते, तब तक ही थोड़ा टाँगों को आराम दे लूँ।’’


लेकिन इन्होंने तो न सवाल पूछा, न आगे-पीछे होने को कहने की कोई तकल्लुफी दिखायी। बस जितनी जगह दिखी, उसी में तशरीफ टिका दी। ये तो कहो इन्होंने बैठने के बाद खुद के पढ़ने के लिए अखबार खोल लिया था। अखबार भी खोला तो इतनी नजाकत से कि मुड़े पन्नों के खुलने तक की आवाज कान में न पहुँची। ये तो बात बस यूँ हुई कि रेलगाड़ी रूकी हुई थी और अखबार के खुलने से बही हवा हमारे बालों की तह तक जा पहुँची।


अखबार के बड़े-बड़े पन्नों के पूरे खुलने का ही नतीजा थी हवा की वह बयार। बड़ी मद्धम सी झनकार लायी इस हवा से उड़ते-उड़ते ही बचे थे हमारी हेयर-स्टाईल के आधार के वो इने-गिने चन्द बचे काले कर्णधार। फौरन ही तेजी से गर्दन घुमाकर देखा। ये सज्जन हमारी वाली सीट पर हमारे बगल में बची हुई आठ-दस अंगुल की जगह पर टिक चुके थे। टिके तो टिके, अखबार की जाने किस खबर पर यूँ नजरेें गड़ा चुके थे कि हमारे दिये जाने वाले अहसान को भी लेने को न तैयार हुये।


हुआ कुछ यूँ कि बैठकी के लिए मौजूद तंगहाली को देखकर हम अपनी वाली सीट पर कुछ अंदर की तरफ खिसक लिये थे। सोचा था, हमारी इस करनी पर हमारी तरफ देखकर वो थोड़ा मुसकुरायेेंगे, फिर अपनी तशरीफ को कुछ अन्दर की ओर खिसकायेंगे, तभी अपने अहसान के बदले में हम उनसे पूछ लेंगे। पर अपनी करनी के बाद हमें जो पूछना था, उनकी शालीनता के लिहाज से जो कुछ भी आँकना था, सब होश फाख्ता हो गया, जैसे ही उन्हें देखते-देखते उनके जूतों पर जा टिकी नजर।


रेगजीन की चमक आँखों को चैंधिया-चैंधियाकर गवाही दे रही थी कि हो, न हो, ये व्यक्ति पुलिस वाला ही है। इधर हमने मन ही मन आशंका उड़ेली, उधर आँखों ने टिकने के लिए दूसरा सबूत ढूँढ़ निकाला। अखबार में छपी खबर हमारी आशंका की गवाही थी, जिसे यह महाशय बड़ी तल्लीनता से आत्मसात् कर रहे थे-

‘‘अब पुलिस वालों के लिए भी प्रशिक्षण कैंप।’’


बचपन से ही घर वालों ने सिखाया था कि पुलिस की छाँव भी अंधेरी ही होती है। सोचते-सोचते ही अपने अहसान पर अब एक शर्मिन्दगी सी महसूस होने लगी। भले ही अनजाने में सही, पर आराम से बैठने की जगह देने की कोशिश की भी, तो किसको? एक पुलिस वाले को!


पुलिस वाला, जो बिना हिस्सा लिये ऐसी ही रेलगाड़ी में भिखारी तक को भी भीख नहीं माँगने देता। वही पुलिस वाला, जो अपनी ख्वाहिश के पचास-सौ लिये बिना भक्त को मंदिर भीतर भगवान के सामने टिकने नहीं देता। यही पुलिस वाला, जो रिश्वत को कीमत के सप्लीमेन्ट में शामिल करवा चुका है। ऐसे पुलिस वाले को मैंने अपनी बैठने की जगह में से दो-चार अंगुल कम करके, उसके चौड़ाकर बैठने के लिए जगह का निर्माण किया था, सोचकर भीतर ही भीतर खुद को धिक्कार उठा था मैं। पर यह धिक्कार भी ज्यादा देर की मेहमान न रह सकी।


मेरे सोचते-सोचते ही रेलगाड़ी ने अपने चलने को तैयार होने की आवाज कूँ.. कूँ... वाले भोंपू से सभी के कानों में ठोंक दी। बगल में टिके वह साहेबान अब तक तशरीफ को सेटल करना शुरू कर चुके थे। सीट पर पुनः पसार लिये गये मेरे फैलाव के बावजूद चार-छः अंगुल तो मेरी टाँगों के इलाके में बढ़ ही आये थे वो। फिर जेब से मोबाइल फोन निकालने की एवज में जो उनके बदन ने हिलने की जो आपाधापी दिखायी, उसमें हमारा आराम तेल लेने जा चुका था। मोबाईल को निकालकर हाथ उन्होंने ऊँचा हवा में उठाया, मानो टाॅवर के सिग्नल को अपना मोबाइल दिखाने की कोशिश कर रहे हों। अब सिग्नल ने मोबाइल देखा, न देखा, ये तो पता नहीं, पर उनकी हरकत ने हमारी सोच को अनैतिक जरूर साबित कर दिया।


मोबाइल फोन के बाहर आने का मतलब किसी से बात करने का इरादा नहीं था। हाँ, मोबाइल फोन के शीशे पर ऊपरी रोशनी में जो भी दिखा, उसे फौरन उन्होंने अपना हाथ नीचे करके कलाई घड़ी से मिलाया। मतलब यही था कि शायद रेलगाड़ी पहली बार अपने समय से चलने की फिराक में थी। तभी उनका मोबाइल फोन घनघनाया। मोबाइल का हरा बटन दबाते हुए उन्होंने बतियावक-यंत्र को कान पर टिकाते-टिकाते काफी देर से बंद अपना मुँह आखिरकार खोल ही दिया-

‘‘हैलू! मैडम। रमता प्रसाद बोल रहे हैं। गाड़ी चली नाही है अभी।’’

इन बोलों के उपरान्त काफी देर तक केवल उनकी आँखों ने बोला। सामने की तरफ से आवाजें उनके कानों में आ रही थीं और जवाब उनकी आँखों से निकल उनके ही चेहरे पर जैसे फैल-फूल रहे थे। आखिर में जो पूरी बोगी में बैठे लोगों को समझ में आया, वो उन्होंने अपने लहजे में पूरी मुस्तैद आवाज में बोला था-

‘‘समझ गया मैडम। टीटीई को तो चढ़ने से पहिले ही बोल दिया था। आ जाओ आप पाँच मिनट में। चेन-वेन खींचने की जरूरत नहीं पड़ने वाली। आप आ जाओगी, तभी चलेगी गाड़ी।’’


ढेर भर "कूँ...कूँ..." भोंपुओं के बाद भी रेलगाड़ी हमेशा की तरह इस बार भी वक्त से नहीं चलने वाली थी, इसे उन महोदय के शब्दों ने तय कर दिया था। एक बार को लगा था, शायद ऐसा न भी हो। आखिर पुलिस वाले ही तो नियम-कानून के रक्षक होते हैं। संभव था, हमारे बगल वाले महोदय ने अपने शब्द केवल अपनी मैडम का दिल रखने के लिए बोले हों। लेकिन हमारा सोचना जितना मुनासिब था, उतनी ही ज्यादा अपरिपक्वता की निशानी।


जो कानून की रक्षा करता है, अगर वही रेलगाड़ी में मौजूद होकर सफ़र न कर पाये, अपने गंतव्य पर न पहुँच पाये, तो फिर देश की रक्षा, रेलगाड़ी की रक्षा की जिम्मेदारी भला कैसे पूरी हो पायेगी? रक्षा, सुरक्षा की अहम कड़ी के रूप में कंधों पर जिम्मेदारी ताने हुए अंततः वो आ ही पहुँचीं। हाँ, पाँच नहीं, करीब सात मिनट लगे होंगे, पर मैडम एक बार रेलगाड़ी पर चढ़ीं और फौरन ही रेलगाड़ी कूँ-कूँ की आहों-कराहों से गूँजकर दौड़ पड़ी अपनी शाश्वत पटरियों पर।


हमको हमारी सीट पर बैठने का मिला अधिकार अभी भी बरकरार था, ये सबसे ज्यादा खुशी की बात थी। हाँ, वह दायरा, जिस पर अभी तक हमारी बैठकी कायम थी, अब पहले से भी आधे इलाके में सिमट चुका था। हमारे सामने की काफी खाली सीट और हमारी वाकई खाली सीट कतरा-कतरा भर चुकी थी। आमने-सामने की सीटों के कोने वाली सीट से तो यात्री खुद ही उठकर इर्द-गिर्द की और सीटों पर खिसक लिये थे। रमता प्रसाद जी की मैडम उसी कोने वाली सीट पर विराजमान हुई थीं।


रेलगाड़ी चलना शुरू होते ही टीटीई महोदय खुद उन मैडम की सीट पर आकर बैठे। जहाँ रेलगाड़ी के सर्वेसर्वा ने अपनी बैठकी जमायी हो, वहाँ क्या-क्या नहीं आता! देखते ही देखते मैडम की ऐसी खातिरदारी हुयी, जैसे बारात में आयी समधिन को उपहारों से तोलने वाली कोई प्रक्रिया हो। लेकिन टीटीई साहब के पास उतना वक्त न था। मैडम तो पूरी रेलगाड़ी की ढेरों सवारियों के बीच में अभी बस एक यात्री भर थीं। टीटीई साहब को तो पूरी बारात के स्वागत की जिम्मेदारी भी संभालनी थी और मुफ्तखोर घुसपैठियों की तलाश भी करनी थी।


जैसे ही टीटीई साहब की रवानगी हुई, हमारे इर्द-गिर्द पूरा मजमा लगा चुकी पुलिस की टीम के एक सदस्य ने अपना कौतूहल मैडम के सामने रखा-

‘‘कुछ तो खर्चा-पानी तो देना पड़ेगा न मैडम?’’

मैडम ने अपने होठों की कमानी पूरे तरन्नुम से टहलायी-

‘‘अरे हम मेहमान हैं। मेहमान कोई पैसे देता है क्या? थाने में गाड़ी पकड़ी गयी थी और उसके बाद इसका लड़का कितने कारनामे कर चुका है, हर बार हम कोई खर्चा-पानी लेते हैं क्या? और कौन से भला हमारे कहने पर, या हमारी फर्माईश पर बनवाये हैं। किसी के लिए बनवाये होंगे। नहीं चढ़ा होगा गाड़ी में, तो भिजवा दिये होंगे इधर। अपने जबड़े की बोटी आज कोई ऐसे ही थोड़े ही बख्शता है किसी और को। ऐसी रिझाने की गोटियों के पैसे हम तो देने से रहे।’’


मैडम जिस अंदाज में चुन-चुनकर अल्फाज तोल रही थीं, खुशामद में जुटे रेल-कारिन्दे को समझ आते पल भर से ज्यादा न लगा। वो अब जान गया था, सूट-बूटधारी ये लोग वो बड़े आदमी नहीं, जिनकी खुशामद पूरी होने से टीटीई साहब की शाबाशी के बाद बख्शीश भी मिलने की आस रखी जाये। टीटीई साहब अब तक अपने अखिल भारतीय काम पर सबल हो चुके थे। लड़के ने आजू-बाजू बड़ी शान से नजरें लहरा कर देखा। नौकरी खतरे में डाल सकने का माद्दा दिखा सकने वाला कोई भी वर्दीधारी न था।


अभी तक कटलेट, पकौड़ियों पर भर-भरकर चटनी डालने वाले लड़के ने कपों में दीवार की आधी ऊँचाई तक नापकर चाय उड़ेली। बड़ी तेजी से सारे शालीन वस्त्र वालों के हाथों में वो कप टिके और लड़का तेजी दर्शाती पूरी रफ्तार से चलता बना। मैडम को तो कुछ बोलने का वक्त भी न मिला। बटुए में टिके गाँधी जी के मूर्त रूप बिल्कुल मैडम की इच्छा हिसाब से यथास्थान बने रहे। वैसे अगर लड़का रूक भी जाता, उसे कुछ न मिलता। इस तथ्य का निर्णय लड़के ने शायद उस घड़ी ही कर लिया था, जब वह सबको चाय पकड़ा रहा था। बूट के नीचे अटे जूतों के देशप्रसिद्ध पुलिसिया रंग को देखकर ही शायद उसने भी सत्य भाँप लिया था।


लड़के के निकलते ही सच्चाई का बड़ा खुलासा हुआ। चाय की चुस्कियाँ भीतर सिमटते ही सारे सूट वाले अपने दम में दमकने लगे थे-

‘‘चीनी तो डालकर ही नहीं गया कम्बख्त! पकड़ो, श्यामल भाई। दौड़ो।’’


उबलते हुए श्यामल जी ने मैडम के हुक्म की बिल्कुल दहकते हुए जी हुजूरी की। की, मतलब करने की कोशिश की। कमर से थोड़ा नीचे सरक गयी बेल्ट को उठते ही अगर तोंद तक खींचने की जरूरत न होती, फिर तो वो दौड़ ही पड़े होते। वैसे वो दौड़े भी, लेकिन जितनी गति रही होगी, उससे अच्छा यही होता कि वो दौड़ते ही न!


श्यामल जी के नजरों से गायब होते ही रमता प्रसाद की जुबान एक बार फिर हरकत में आयी-

‘‘मैडम! यही देखे होंगे हेडक्वार्टर वाले। तब ही प्रशिक्षण कैंप का ई बवंडर टिका दिये।’’


रमता प्रसाद की सुनते-सुनते मैडम एक तरफ को झुकीं। उनके शारीरिक हालात भी श्यामल जी से किसी मामले में उन्नीस न रहे होंगे। स्थिति बिल्कुल दर्शनीय थी। उनके झुकने और हाथ को खास व्यक्तिगत जगह पर पीछे ले जाने की दिशा की अदा मामले में गहरा कौतूहल जोड़ती जा रही थी। कुछ लोगों को तो अवाँछित आवाजों की आस भी बन पड़ी थी। कुछेक ने तो आरंभिक सावधानी के तौर पर हाथ उठाकर नाक के इर्द-गिर्द ले जाकर भी रख लिये थे। लेकिन मामला कुछ और ही निकला।


खुद की बैठकी के नीचे गया हाथ कई सेकण्डों तक मैडम के अपने वजन के नीचे दबा रहा। फिर एकाएक ही दोबारा कोने पर झुकते हुए जैसे ही मैडम जी वापस सीधे बैठीं, उनका अपना बटुआ उनके अपने हाथ में था। मन में जितने भी संशय पनपे थे, सबका निवारण बटुए को देखते ही हमारी राहत की साँस के साथ सामने था। परन्तु हाथ में बटुआ और वो भी पुलिस महकमे की मैडम का... असमंजसता से भरा हतप्रभ करने वाला बड़ा गूढ़ तथ्य था वो!


इधर राहत की साँस अन्दर गयी, ठीक उसी वक्त श्यामल जी ने भी अपनी वापसी के दर्शन दिये। न जाने कैसे, चाय देने वाला लड़का उनके हाथों की दबोच में था। पर चित्र कुछ आशानुरूप न था। हाँ, लड़के के चेहरे पर उड़ती हवाइयाँ जोरदार थीं, लेकिन श्यामल जी का जो हाथ लड़के की गर्दन के काॅलर पर अटा होना चाहिए थे, वो हाथ लड़के के कन्धे पर था। और तो और करीब आते ही उन्होंने लड़के को मैडम के बगल में बिठा दिया।


इस तरह का अद्दभुत प्रेम दिखाने के बाद लड़के के साथ किस हद तक का सुलूक हो सकता है, बात तो सिर्फ और सिर्फ सोची ही जा सकती थी। पर जैसे बाकी देखने वालों का हाल हुआ, हमारी भी आँखें फटी की फटी रह गयीं। मैडम ने अपने शुभ-मुख से लड़के से पूछा-

‘‘पैसा कौन बतायेगा... तेरे हिस्से के? जो हमारे लिए अलग से लाया था, उन सबका? और, जो औरों को सामान बेच रहा है, उससे भी निकालकर दिया था न तूने? कितना हुआ?’’


सवाल सुनते ही लड़के के हालात ऐसे थे, मानो, काटो तो खून नहीं। दृश्य बिल्कुल दर्शनीय था। मैडम का सवाल पूरा होते-होते सज्जन कपड़ों में सुसज्जित प्रत्येक विशेष बूटधारी ने अपने-अपने बटुए बाहर निकाल लिये थे, मानो हर कोई एक ही आशय पर व्यक्त हो-

‘‘मैडम! ऐसे, भला कैसे हो सकता है! हमारे रहते पैसे आप कैसे देंगी?’’


हाँ, मैडम का सवाल पूछने का लहजा ऐसा था, लड़के को फौरन महसूस हुआ था कि अगर जवाब सामने न गया, एक लात चुप्पी के जवाब में उसके बदन पर सुशोभित हो ही जायेगी। फौरन ही वो उंगलिक गणना में जुट पड़ा था। सज्जन वस्त्रधारियों की इशारिक वार्ता सम्पन्न होने में ज्यादा वक्त न लगा। फैसला फिर मैडम की जुबान पर था-

‘‘हो गयी, तेरी गिनती पूरी? बता, कितने देने हैं।’’

जितना डरते हुए लड़के की जुबान से निकला था-

‘‘पूरे दो सौ।’’

उतनी ही तुरत गति से निकली थीं मैडम के बटुए से मुद्राएं। रफ्तार के ये वाकये अपनी परिणति पर खत्म हो जाते, उससे पहले ही अक्सर दिमाग की दाद पाने वाले रमता प्रसाद का सवाल भी दनदनाया-

‘‘तेरे पैसे तो मिल गये, पर उस चाय का क्या? मुझे तो नहीं लगा कि किसी कप में तूने ठीक से आधी भी चाय भरी थी!’’


सवाल लड़के ने कितना सुना, इसका पता बाद में चला, पर मैडम की बाँछें पूरे अन्दाज में खिल पड़ीं। अक्सर दी जाने वाली दाद फिर से उनके होठों पर थी-

‘‘बात तो पते की किये हो रमता प्रसाद। तुम ही हमारी चौकी के सबसे अच्छे हीरे हो। अमल होना चाहिए तुम्हारे कहे पर। पैसे तो काटने ही चाहिए। लेकिन एक बात कहनी पड़ेगी। वैसे चाय तो अच्छी थी लड़के की।’’


मैडम की बात खत्म हुई और पहली बार अपने गुनाह को इतनी आसानी और इतनी खुशी से कुबूलते देखा किसी को-

‘‘मैडम पैसे काटने की क्या बात है? कप तो अभी भी आप सभी के हाथ में हैं। सजा मानकर दोबारा में पूरा भरे देता हूँ मैं।’’


गलती कुबूली, तो कुबूली ही, अपने लिए सजा भी खुद ही मुकर्रर करवा ली लड़के ने। लड़के के फर्मान पर सादी वर्दी के पुलिस वाले जोर से हँसते हुए तालियाँ बजाने लगे। जिन्होंने भी ये नजारा देखा, सबके भीतर इतनी गर्मजोशी उफनी कि सबने फिर मिलकर तालियाँ पीट दीं। आखिर अपनी गलती, अपने गुनाह पर शायद ही किसी ने कभी पुलिस विभाग के सामने ऐसे घुटने टेके होंगे। मतलब... ये पुलिस वालों की ही प्रस्तुत दरियादिली थी कि लड़का ये करने की हिम्मत दिखा पाया। प्रशंसा की बात तो बनती ही थी, वो भी दोनों पक्षों के लिए।


इतने सारे ताली-शुदाओं के बीच अभी तक एक मैं ही ताली-जुदा था। पर, सबकी तालियाँ शांत होते-होते बात पूरे विस्तृत स्वरूप में मेरी दिमागी समझ के दायरे में गहरा घर कर ही गयी। फौरन ही मैंने भी ताली बजा दी। एकदम से शांत हुए माहौल को जिस तरह मेरी तालियों ने गुँजाया था, सबने मिलकर फिर से मेरे लिए भी जी-तोड़ तालियाँ तौल दीं। तालियाँ जितनी जोर से पड़ीं, मैं भी उतनी ही जोर से शर्माया। शर्माने की वजह भी तो थी। इतनी देर से ये मन जिनके बारे में इतना कुछ सोच रहा था, उनकी असलियत तो कुछ और ही थी। और उसका भी कारण था। आखिर बचपन की रटी-रटायी परिभाषा बदलना इतना आसान थोड़े ही होता है।


सामने बैठे लोग उस पुलिस महकमे के इंसान थे, जिनके बारे में अभी तक मुझे पता था कि अंदर इंसानियत खत्म होने की कीमत पर ही उन्हें पुलिस की पदवी से नवाजा जाता है। पर अक्सर ही कई बार वो सच हमें कुबूलना पड़ जाता है, जिसे कुबूलने को दिल तैयार तो नहीं होता, पर यही सच होता है। ये आँखों-देखा सच है कि पुलिस वाले भी इंसान होते हैं और वो भी हँसकर, हँसने-हँसाने का खूब मौका देते हैं, बशर्ते नियम-कानून की स्थिति हाथ में हो और इंसानियत बद् से बद्तर न हुई !


Rate this content
Log in