लेखक की पालतू मुर्गी
लेखक की पालतू मुर्गी


वह लिखने के चक्कर में कुंवारा रह गया था। पेट भर खाना और मन से लिखना यही उसका रोज का सगल था। पेट पालने के लिए वह प्रकाशकों पत्र पत्रिकाओं और अखबार पर आश्रित था। रचना छपी तो कुछ पैसे मिल जाते जिससे गुजर बसर में कोई परेशानी नहीं थी। एक बार बिमार हुआ तो रोटी के लाले पड़ गए। उसने सोचा क्यों न लिखने के अलावा कोई साईड का धंधा अपना लूं। इस विषय पर वह कई दिनों तक सोचता रहा। आखिर में फैसला किया क्यों न दो चार मुर्गी ही पाल लूं। मुर्गियों का क्या दाने डाल दो कुकरू- कु करता रहेगा! उसकी जमा पूंजी तो बिमारी के इलाज में चला गया। लेखक अपने किसी परिचित से कुछ पैसे उधार ले आया। और उसी पैसे से चार पांच मुर्गी खरीद लाया। अब वह स्वस्थ भी हो गया था। अपने घर के बरामदे में बैठे लिखते पढ़ते रहता। और मुर्गियां वहीं कुकरू-कु दिन मजे में कट रहे थे। तभी लाक डाउन हो गया। और ऐसे में उसका धंधा चौपट हो गया। भूख से एक मुर्गी को छोड़कर बाकी सभी मर गए। थोड़ा चिंतित हुआ लेकिन संभल गया। ठाली बैठे दिन काटना मुश्किल हो रहा था। पहले वह मार्निग वाक् कर आया करता। एक दिन वह लिखने बैठा था और उसकी प्यारी मुर्गी वहीं दाना चुगने में व्यस्त थी। लेखक का ध्यान लिखने में लगा था।तो ऐसे में मुर्गी उसके मन-मस्तिष्क से बाहर हो गया था।मौका पाकर पड़ोसियों ने उसकी मुर्गी चुरा ली। और फिर काम तमाम।जब लेखक का ध्यान मुर्गी पर गया तो वह बहुत दु:खी हुआ। उसे थाना पुलिस से बहुत डर लगता था।तो ऐसे में किया करे। कुछ सोचकर उसने फैसला किया क्यों न किसी अखबार का सहारा लिया जाए। वैसे भी इन दिनों अखबारों को कोई ढंग का समाचार नहीं मिल रहा है। खाली कोरोना कोरोना से अखबार भरा रहता है। अगले दिन अखबार में खबर छपी "लेखक की मुर्गी चोरी हो गई।" लोगों ने इस खबर को बहुत चटकारे लेकर पढ़ा जिधर देखो उधर चोरी गई मुर्गी की ही चर्चा हो रही थी। और चोर लेखक से पूछता मुर्गी मिली। अब लेखक बहुत दुःखी रहने लगा। एक दिन लेखक का पड़ोसी रहीम मियां हाल चाल जानने लेखक के घर पहुंचे। मुर्गी की चोरी की खबर वो भी पढ़ें थे। आते ही दुआ सलाम के बाद बोले मुर्गी मिली किया। लेखक को बहुत दुःख हुआ। एक तो मुर्गी चोरी हो गई ऊपर से लोग उसके जले पर नमक छिड़कने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रखी थी। चाय साय के बाद रहीम मियां बोले बरखुर्दार क्यों न मुर्गी चोरी की रपट थाने में लिखबा दो वैसे भी रपट लिखवाने में हर्ज ही क्या है? लेखक महोदय को रहीम मियां की बात जम गई। आनन फाफन में पहुंच गए थाने। थाने में हवलदार साहब से सामना हुआ। हवलदार साहब बोले मुंशी जी से मिलो वही कुछ बता सकते हैं। अब थाने के मुंशी जी सामने थे बोले "कहिए लेखक महोदय कैसे आना हुआ।" लेखक ने मुंशी जी को मुर्गी चोरी का वृत्तांत कह सुनाया। पहले तो मुंशी जी और हवलदार जोर से हंसे। और हंसते हुए बोले "ओह! बहुत बुरा हुआ। लेकिन थाने में विशेष तरह के रपट लिखवाने के पैसे लगते हैं।" लेखक जी के चेहरे पर मायूसी छा गई। दबे स्वर में बोले "जी कितना पैसा लगेगा।" मुंशी हवलदार "एक साथ पांच सौ रुपए। इससे एक पैसा कम न ज्यादा।" लेखक को मुर्गी जान से प्यारी थी। फौरन पांच सौ रुपए हवलदार के हबाले किया। आनन फाफन में मुंशी जी फर्स्ट इन्वेस्टिगेशन की रजिस्टर उठा रपट लिखने बैठ गए। "हां तो अपनी मुर्गी के बारे में कुछ कहिए मसलन कैसी थी। कितना वजन था।" लेखक एक सांस में कहा "जी वजन यही कोई आधा किलो रंग काला सफेद और लाल।" हवलदार चौंका एक मुर्गी के इतने रंग नहीं हो सकते। थोरा विस्तार से बताइए। लेखक ने पुनः बात दोहराई तो हवलदार गुस्सा हो गया।"आप कैसे लेखक हैं।वजन तो ठीक है पर रंग सही नहीं बताएंगे तो इन्वेस्टिगेशन कैसे होगा।" आखिर में लेखक जी ने कहा "जी मुर्गी के चोंच का रंग लाल और शरीर पर उगे बालों के रंग थे काले और सफेद वजन वही आधा किलो" रपट लिखी जा चुकी थी। हवलदार साहब ने लेखक से कहा जे हुई न बात। चलते चलते लेखक ने कहा " जी अब मुर्गी के मिलने या न मिलने के बारे में कब पता करूं।" हवलदार-" अब आपको थाने में आने की आवश्यकता नहीं है।मिलते ही आपको सुचित कर दिया जाएगा।" संतुष्ट होकर लेखक घर आ गए। उधर लेखक के पैसे से शाम को थाने में दावत दी गई। तीन चार मुर्गी हलाल और ऊपर से दारू सारू भी। रपट लिखाए पहले दिन बीता, फिर सप्ताह और देखते देखते महीनों बीत गया।पर थाने से मुर्गी के संबंध में कोई खबर लेखक तक नहीं पहुंची तो एक बार फिर दुःखी होते थाने पहुंचा। लेखक को देखते ही हवलदार और मुंशी जी की बांछे खिल गई। "आइए जी कैसे आना हुआ। लेखक जी आपको तो पता ही होगा एक महीने पहले मुर्गी खोने की रपट लिखवाई थी। उसका किया हुआ।" मुंशी हवलदार एक बार फिर मुस्कुराया और मुस्कुराते हुए बोला "अच्छा वो आपकी मुर्गी खो गई थी वही ना।" लेखक" हां हां।" हवलदार-" देखो साहब बात ऐसी है, तब आपने मुर्गी खोने की रपट लिखाने के पैसे दिए थे। अब यदि ढूंढने के पैसे जमा करो तो कुछ करूं।" लेखक थाने की ऊंची बिल्डिंग को देखकर सोचने लगा। साला कर्जा लेकर मुर्गी खरीदी उसमें भी कुछ मर गए एक बची वह भी चोरी हो गई। रपट लिखवाने के भी पांच सौ रुपए दिए। जितना अभी तक मुर्गी ढ़ूढने में खर्च किया उतने में पांच मुर्गी और आ जाती।सो दबे पांव अपने घर की ओर चल दिया। हवलदार और मुंशी लेखक की मूर्खता पर थाने में बैठे मुस्कुरा रहे थे।