*कीचड़ में कमल *
*कीचड़ में कमल *


साड़ी का खूँट पकड़कर मेरा बेटा मुझसे हठ करने लगा, “अम्मा...बताओ ना... कीचड़ में क्या खिलता है ?”
“अरे, ...हट, तंग मत कर। देख ऊपर, कितने घने बादल हैं... जोर से बारिश आने वाली है, जल्दी-जल्दी इन बिचड़ों को लगाकर घर जाना है। कल से घर में चूल्हा नहीं जला है। क्या पता? इंद्र देव आज भी कुपित हो जाएँ ? यदि आज भी ओले बन कहर बरपायेंगे... तो खाना-पीना, रहना, सब दूभर हो जाएगा ! जलावन सूखी बची रहेगी ?! या कल की ही तरह हमें आज फिर सत्तू खाकर दिन काटना पड़ेगा !? इधर, बेचारे इन बिचड़ों को जो हाल होगा वो भगवान मालिक !”
“अम्मा, ये सब मुझे नहीं सुनना ..पहले बताओ...?”
“तू भी सच में बड़ा जिद्दी है। बिना बता
ये कभी मानता कहाँ ! बेटा, कीचड़ में बिचड़ों का मुस्कुराना मेरे मन को बहुत सुकून देता है। रे...तू क्या समझेगा ! अभी इसी तरह अबोध जो है ! ” धान के बिचड़ों को कीचड़ सने हाथों से सहलाते हुए..मैं काले मंडराते बादल को देखने लगी।
“पर, अम्मा... किताबों में तो यही लिखा है कि कीचड़ में कमल खिलता है। ”
“रे...पढ़ा होगा तू ! पर, जिस किताब की बात तू कर रहा है ना, वो भाषा मुझे नहीं सुहाती ! भूखे पेट...कीचड़ में कमल नहीं, मुझे, धान की बालियाँ लुभाती है। ”