मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

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3.4  

मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

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कारवाँ (कहानी)

कारवाँ (कहानी)

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किसी ने सही कहा है -

वक़्त की रेत मुट्ठी से फिसलती क्यूँ है? 

ज़िन्दगी रोज़ नए रंग बदलती क्यूँ है? 

वास्तव में ये ज़िन्दगी भी अजीब है। इंसानों को रोज़ नए रंग-रूप दिखाती है। कभी इसे ये दुनिया बहुत हसीन नज़र आती है। चारों तरफ ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ जब हों, तो दिल करता है। ये वक़्त यहीं रुक जाए। ये पल यहीं ठहर जाए। इसे कैसे में मुट्ठी में क़ैद कर लूँ। रोक लूँ। जाने न दूँ। लेकिन न कभी, किसी के रोके वक़्त रुकता है, न ठहरता है। न इसे किसी डिब्बे में क़ैद किया जा सकता है। ये उसमें भी एक सुराख़ से मुसलसल रिस्ता रहता है। रेत की तरह है। फिसलता ही जाता है। लेकिन ज़िन्दगी भी एक कारवां की तरह है जो आगे बढ़ती जाता है। और फिर यही वक़्त अगर बुरा हो तो इसके जल्दी गुजरने की दुआएँ भी तो मांगी जाती हैं।

ख़ुशियाँ भी तो खुशबू की तरह होतीं हैं। पलक झपकते ही उड़ जातीं हैं। आखिर कार समझौता ग़मों से ही करना पड़ता है। तब ये ज़िन्दगी आगे बढ़ती है। ग़म और ख़ुशी भी एक धूप-छाँव का खेल है जो लगातार जारी है। अभी इन्हीं ख्यालों में गुम मैं कार ड्राइव कर बेटी को कोचिंग से लेने जा रहा था कि मेरे दोस्त, गिरीश के फोन की घंटी बजी। ये उसका आज दूसरा कॉल था। 

- हेलो गिरीश, कैसा है तू, बहुत दिन में याद किया। 

- बस अच्छा हूँ, तेरी याद आ रही थी। बहुत दिन से हम मिले भी नहीं। सोचा फ़ोन ही कर लूँ। अब तू भी अपनी घर गृहस्थी में उलझा है। तो मैं भी डिस्टर्ब नहीं करता। 

- अरे, तुझे भी कितने बार समझाया। तू भी उलझ जा। वक़्त आराम से गुज़र जाएगा। ये जो उलझन-सुलझन है न। ये कुछ सोचने का मौका ही नहीं देती। अच्छा चल, तो आज रात को मिलते हैं वही पुराने अड्डे पर। उसी होटल में बैठ कर ग़म-ग़लत करते हैं। ऐसा कर रात को नौ बजे मिलते हैं। किसी और को भी बुलाना हो तो बुला ले। मिल बैठेंगे पुराने यार। 

- अरे नहीं यार, आज तो तू ही आजा, फिर कभी उन लोगों को भी बुला लेंगे। 

गिरीश ने तयशुदा वक़्त पर टेबल और आर्डर दोनों बुक कर दिए थे। मैं पहुंचा तो वह प्रतीक्षा ही कर रहा था। स्टार्टर से हमारी बात शुरू हुई। 

- हाँ तो गिरीश, तुम्हारे घर वाले लड़की देखने जाने वाले थे। क्या हुआ?

- अरे, अब छोड़ यार शादी-वादी। अब तो हमें कुँवारे ही मरना है। ये ज़िन्दगी भी अच्छी है, यार। अब इसमें कोई लफड़ा नहीं है। 

- शादी तो वो लड्डू है मेरे दोस्त, जो खाए तो भी पछताए और न खाए तो भी। फिर खाकर पछताना ही ठीक है। अभी तेरी उम्र इतनी भी नहीं गुज़री है। फिर कहते हैं न कि शादी का जोड़ा तो ऊपर वाला बना कर भेजता है। बैठी होगी कोई तेरे इंतज़ार में।

मैं जनता हूँ। तू ने बहुत कुर्बानियाँ दीं हैं अपने परिवार के लिए। पिता जी के इस दुनिया से जाने के बाद तू ने बड़ा भाई होने के नाते अपने सारे फ़र्ज़ निभाए। दो बहनों और दो भाइयों की शादी। घर मकान सभी तो दे दिया, बना कर। ईश्वर की कृपा से दोनों भाई सरकारी नौकरी में आ गए। और बहनों के भी अच्छे घरों में रिश्ते हो गए। अब क्या बचा है। 

- बचा है मेरे दोस्त अभी बहुत कुछ बचा है। घर वालों के लिए कितना कुछ करते रहो सब कम है। भाइयों के बच्चों के अच्छे स्कूलों में एडमिशन होने हैं, उनके ऊपर तो बहुत खर्चे हैं। बहनों की ससुराल के नेग-दस्तूर हैं। मम्मी जब भी पास बैठो किसी न किसी के दुःख का किस्सा लेकर बैठ जातीं हैं। अब अगर मैं ने शादी कर भी ली तो ये सब कौन करेगा।

- अच्छा तो ये बात है। तभी इन्हें तेरे लिए कोई लड़की पसंद नहीं आती इन्हें। 

- आएगी भी नहीं, अब वक़्त भी तो हाथ से रेत के मानिन्द फिसल चुका है। 

- वक़्त जो गुज़र गया उसे गुज़र जाने दे। उसका तो काम ही है चलना। लेकिन ज़िन्दगी के कारवां को भी तो आगे बढ़ना है। इससे पहले कि ये तजुर्बे की सफेदी, जो बालों के अंदर छिपी है बाहर निकल कर आए। हम एक बार फिर ज़िन्दगी को शुरू करते हैं। तू ने जो अपने परिवार के साथ किया उसका सिला तो ऊपर वाला ज़रूर देगा। ऐसा करते हैं, अबकी बार मैरिज ब्यूरो में, तेरी शादी के ऐड में मेरे घर का पता देते हैं। तेरी भाभी सपना डील कर लेगी सब कुछ। फिर जब बात फाइनल हो जाएगी तो तेरे घर वालों को बता देंगे। अब तो कोई भी कास्ट चलेगी न। 

- हाँ, क्यों नहीं। लिखवा दे जाति का कोई बंधन नहीं। 

अबकी बार मैरिज ब्यूरो ने जो लड़की बताई वह विडो थी। शादी के एक सप्ताह बाद ही उसका पति एक्सीडेंट में मर गया था। कुलीन परिवार से तो थी है। बैंक में केशियर भी थी। सपना जब उससे मिली तो उसे बहुत अच्छी लगी। लेकिन इस बार तो गिरीश की मम्मी और बहनों को ये रिश्ता सिरे से ही ख़ारिज कर देना था। कुंडली मिलवाने का तो प्रश्न ही नहीं था। 

- यार गिरीश जब सपना उसकी इतनी वकालत कर रही है, तो एक बार मिलने में क्या हर्ज है। लड़की वालों की तरफ से तो कोई बंधन नहीं है। तेरी ऐज ग्रुप की भी है। अब देख छोड़ ये सारी दुनिया-दारी की बातें। कौन क्या कहेगा? तुझे जो सबसे अच्छा लगे वह कर। वक़्त तो अपने तरह से आगे चल रहा है। तू भी अपनी ज़िन्दगी की रफ़्तार को इस से मिला ले। 

सपना ने एक होटल में डिनर पर नताशा को भी बुला लिया। मुझे और गिरीश को तो सपना का फैसला पसंद आया। बस अब घर वालों से बात करना, महज़ एक औपचरिकता ही थी। वे भी थोड़ी न नुकुर करने के बाद मान गए। एक सादे से समारोह में दोनों शादी के बंधन में बंध गए। 

अब वक़्त के साथ-साथ गिरीश के परिवार का कारवाँ भी आगे बढ़ रहा था। गिरीश की क़ुर्बानियों का सिला नताशा के रूप में उसे मिल गया था। 



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