हरिद्रोही
हरिद्रोही


मैंने हरदोई क्यों छोड़ा ? हरदोई छोड़ने के लगभग एक वर्ष बाद आज इस प्रश्न पर विचार करने बैठा था। मेरा जन्म एक वैष्णव परिवार मे हुआ और लालन पालन भी इसी परिवेश में। मैं स्वभाव और संस्कार से हरि-प्रेमी हूँ, हरि द्रोही नहीं। इस बात को समझने में मुझे कुछ महीने तो जरूर लग गए। यहाँ हमारी मुलाक़ात भांति-भांति के लोगों से हुई।
अभिभावक- एक अभिभावक से फी देने के लिए कहा तो उन्होने 100 नंबर डायल कर पुलिस बुला लिया। यह मेरा पहला दिन और पहला अनुभव था। भला हो सी. सी. टी. वी कैमरे का, नहीं तो जनाब कुछ और आरोप प्रत्यारोप लगाते।
अध्यापक- इनसे मेरी मुलाक़ात ईमेल से पहले हुई, साक्षात दर्शन तो बाद में । इनका ईमेल पढ़कर ऐसा लगा, महानुभाव किसी गंभीर मानसिक परेशानी से गुजर रहे हों। एक अध्यापक का प्रेम संबंध, दसवीं कक्षा की छात्रा के साथ, और यह बात सभी को ज्ञात थी। एक अध्यापक तो मेरे चरण छूते और बाहर अध्यापकों से कहते मैं तो इन्हे खा जाऊंगा। वास्तव में, विद्यालय को प्राचार्य की आवश्यकता नहीं थी। अपने सर्वेश तो पुराने प्राचार्य के नकली हस्ताक्षर से टी.सी. भी निर्गत कर देते थे। कहने को तो यह संस्थान व्यावसायिक नहीं था किन्तु सच्चाई विलकुल उलट थी। एक बात, किसी भी कर्मचारी की सेवाएँ कभी भी समाप्त कर दी जाती। यह कार्य मेरे द्वारा नहीं किया जाता। समानुभूति, सहानुभूति और इंसानियत का अभाव वैष्णवों को बहुत खलता है। कई अवसर पर हमारे बीच टकराव बढ़ा। छात्रों के लिए और विद्यालय के लिए मैंने कई आयोजनों में भागीदारी बढ़ाने की कोशिश की। यह बात भी उन्हें खलने लगी। मुझे लगा जैसे कोई मुझे नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है अथवा मुझे अपने इशारों पर संचालित करने की चेष्टा कर रहा है। खैर, जब बात समझ में आई तब यह निर्णय करना था कि हमारा अगला पड़ाव कहाँ हो ? मेरे समक्ष दो विकल्प थे - जी. डी. गोएनका अथवा मेघालय ।
बोर्ड की परीक्षा चल रही थीं। सी. बी. एस. ई. ने मुझे बतौर पर्यवेक्षक नियुक्त कर रखा था। अप्रैल 2019 में नए सत्र में मैंने मेघालय आने का निर्णय लिया। उत्तर पूर्व में काम करने का पुराना अनुभव और भजनका जी के बारे में अनेक शुभचिंतकों ने बहुत अच्छे विचार प्रकट किए थे। साक्षात्कार के दौरान जिन लोगों से मैं मिला, मैं सभी से बहुत प्रभावित था। जी. डी. गोएनका में एस. पी साहब के वाक्य चातुर्य का क्या कहना ! एक आई पी एस अधिकारी से मिलना एक अच्छा अनुभव था, लेकिन एक बात समझ में आ गई थी कि एस. पी साहब अपने स्कूल को भी पुलिस स्टेशन की तरह ही चलाएँगे। जब वे विद्यालय आते तो पुलिस का पूरा महकमा साथ चलता। एक दो सरकारी सिपाही स्थाई रूप से जी. डी. गोएनका स्कूल में कार्य करते। काफी सोच विचार कर हमने जी. डी. गोएनका का विचार त्याग दिया। आखिरकार नए वर्ष की शुरुआत में मैंने मैडम को सूचित कर दिया- अब सिर्फ अगले दो महीने तक, मार्च के अंतिम दिनों में मैं अपनी नई यात्रा पर निकाल पड़ूँगा- चरैवेति,चरैवेति...... फिर भी याद आतें हैं वे । सबसे किया वायदा याद है- सत्र पूरा कर के ही जाऊंगा, त्याग पत्र के दो महीने पहले सूचित करूंगा, यहाँ भी, यदि मेरे निर्णय में कोई बदलाव होता है तो पहले आपको सूचित करूंगा।