गोपू
गोपू


पाँच का सिक्का ख़ज़ाने जैसा था, हम लोगों के लिये। पाँच पैसे माने कंपट की ढेर सारी गोलियाँ या पच्चीस छोटे बिस्किट।
गोपू उर्फ़ गोपाल, गोपू नाम ही सब की ज़ुबान पर था। हेडमास्टर हो या बाक़ी टीचर, सब के लिये गोपू। कभी कभार ही गोपाल पुकारा जाता। गोपू दूसरी और तीसरी क्लास में दिखा, उसके बाद पता नहीं। उस के चेहरे पर एक भोलापन था। फ़ीस जमा करने का दिन एक उत्सव की तरह होता। कक्षा एक और दो की फ़ीस नहीं लगती। कक्षा तीन में दो पैसे महीना, चार में तीन पैसे ,पाँच में पाँच पैसे , कक्षा छः में इक्कीस पैसे / महीना।
तीसरी क्लास में फ़ीस के लिये कभी दस पैसे का सिक्का तो कभी पाँच पैसे का सिक्का मिलता था। मास्टर साहब ईमानदारी से सबको पैसे वापिस करते।
लंच टाइम में बाक़ी बचे पैसे लाला ईश्वर दत्त के गल्ले में पहुँचना तय था। कंपट की माँग सबसे ज़्यादा रहती।
गोपू फ़ीस कभी भी टाइम से जमा नहीं करता। ज़्यादातर जमा ही नहीं करता। मास्टर साहब पहले दिन फ़ीस न लाने वालों को चेतावनी दे कर छोड़ देते। चार / पाँच दिन बाद ऐसे बच्चों को क्लास में खड़ा रखते। आख़िर में एक या दो बच्चे बचते जो फ़ीस जमा नहीं करते, मास्टरजी उनकी फ़ीस भूल जाते / या भूल जाने का नाटक करते।
पाँच पैसे में छोटे / छोटे, गोल/ गोल पच्चीस बिस्किट मिलते , जिसके बीचों बीच अंग्रेज़ी अक्षर का p लिखा होता। गोपू को वो बिस्किट बहुत पसंद थे।बिस्किट के ख़्याल से ही उसकी लार निकलने लगती।
गोपू रास्ते भर बिस्किट का गुणगान करता रहता, फिर मुझे या मदन को बिस्किट ख़रीदने पड़ते। पाँच बिस्किट गोपू के रह्ते।
उस के चेहरे पर बिस्किट खा कर संतुष्टि
आ जाती। पर कंपट वो कभी नहीं खाता।
फ़ीस का दिन।उस दिन,स्कूल से लाला ईश्वरदत्त की दुकान का सफ़र बहुत लम्बा लगता।
काँच के मर्तबान का पुराना सा गोल ढक्कन खुलता, और लालाजी अपने मोटे / मोटे हाथों से बिस्किट गिन कर काग़ज़ के लिफ़ाफ़े में डालते। मनोरम दृश्य। गलती से भी ,कभी एक बिस्किट ज़्यादा नहीं मिलता।
गोपू की अनकही हिस्सेदारी तय थी। ( पाँच बिस्किट )।
यार कल फ़ीस जमा करनी है, मदन बोला, यह गोपू ना तो फ़ीस जमा करता है, न कभी कुछ खिलाता है, बस खाता रहता है।
बात तो तुम सही कह रहे हो, मैं बोला, क्या पता उसके पास पैसे न हो, पाँच ही बिस्किट तो खाता है। कंपट उसको पसंद ही नहीं।
पर फिर भी कभी तो खिला सकता है।
फ़ीस जमा करने के बाद मेरे और मदन के पास तीन / तीन पैसे बचे थे। गोपू बड़े जोश से हम लोगों के साथ चल रहा था।
छोटे बिस्किट बहुत अच्छे लगते हैं, चलो जल्दी।
तो कभी खिला भी दिया कर, मदन चिढ़ कर बोला।
शायद गोपू का चेहरा उतर गया होगा, मुझे ठीक से याद नहीं। उसने कोई जवाब नहीं दिया।
हम लोगों ने पाँच बिस्किट उसे दिये। उसने चुपचाप ले लिये, और दूर खड़ा हो गया। उसके भोले चेहरे पर दुःख ज़रूर रहा होगा।
क्योंकि उस के बाद वो कभी भी हम लोगों के साथ लालाजी की दुकान पर नहीं गया।
अगले साल से उसका स्कूल छुड़वा दिया गया था, शायद ग़रीबी की वजह से या कोई और वजह ,मुझे नहीं पता।
यादों के बक्से से एक सांवला सा गोल चेहरा, माथे पर घुंघराले बालों की लट लिये,अचानक सामने आ खड़ा हुआ।जिसे छोटे /छोटे गोल बिस्किट बहुत पसंद थे। “गोपू”।।