Mukul Kumar Singh

Others

4  

Mukul Kumar Singh

Others

एक लघु यात्रा

एक लघु यात्रा

58 mins
228



       रात का खाना समाप्त होने को था, हाथ एवं मुंह दोनों ही थाली से सन्धि कर लेना चाह रहे थे। सो अकेला भोजन क्या करे और परिणाम युद्ध विराम। मैं भी आराम करना चाहता था। यही तो अवसर था आंखें बन्द कर कल्पना के पंख लगाकर बहुत ऊँची उड़ान भरूं नीलाम्बर को अपने हाथों से स्पर्श करूं। परन्तु ऐसा मेरे भाग्य में कहां था मूठाभाष की घंटी घनघनाने लगी देखा दूसरी ओर से मेरे घनिष्ठ मित्र सेन दा, कहा कि 21 अगस्त को “जयरामबाटी-कामारपुकुर” की छोटी सी यात्रा का निर्णय लिया गया है। मैंने थोड़ा ना-नुकुर किया पर जब सेन ने कहा कि यह सिद्धांत क्लब कमिटि का है तुम जाओगे या नही यह तुम्हारे उपर निर्भर करता है। अतः मैंने भी आत्म समर्पण कर दिया वैसे मन ही मन खुश था। इसलिए हामी भर दिया। आखिर पर्वतारोहण क्लब का एक अनुशासित सिपाही हूं जिसका काम है आदेश पालन करना।

आगामी प्रातः से अपने को इस यात्रा के लिए तैयार करने लगा। वर्षा रानी पूरे अपने यौवन के आकर्षण किसी को कुछ करने ही न दे रही थी बस सभी ललचाई दृष्टि से उसी की ओर देखते रहे। पूरे समय-काल पर उसी का साम्राज्य था। पता नही कब कुपित होंगी और कब हर्षित कह पाना असंभव था। इसके सैनिक बड़े-बड़े बहादुरों को नाको चने चबाने को बाध्य कर देते हैं। वार करने लगते हैं तो दम भी नही लेने देते हैं। जो भी हो महाभारत के कर्ण के तुनिर से निकलने वाली वाणों की भांति अश्वसेन की तरह केवल गरल ही नही उगलता है बल्कि धरती की प्यास बुझाकर जीवनदान देती है। सबकी आत्मा को शांति मिलती है। इस अमूल्य शांति का अनुभव तो गर्मी से व्याकुल सूखे गलेवाला व्यक्ति ही जानता है। बन-ठनकर लड़ने निकले वीरों को त्रस्त कर देता है मात्र अपनी दहाड़ से। तभी तो कितने ही हैं जो घर बैठे रहना पसन्द करते हैं। परन्तु हमारी यह लघु भ्रमण बरसात के मौसम में कुछ अटपटा लगा मेरे मित्रों को। जब भ्रमण-विलासी बन ही गये तो ऋतु विचार कौन करे! 19 अगस्त को सेन दा से मोबाइल पर बातें की- “साथ में क्या-क्या सामान लेकर निकलूं” उत्तर मिला कुछ नहीं। प्रातःकाल मे घर से बाहर तथा संध्या को लौट आना है। सामान के तरफ से निश्चिंत होकर भी मैं एक तौलिया एवं एक छाता साथ ले ले जाना उचित समझा। 20 अगस्त की रात को भोजन करने के बाद मैंने देखा घर की सर्वाधिकारिनी कुछ सब्जियाँ निकाल रही थी। मैंने कौतुहलवश पुछा रविवार को तो मौमा (मेरी इकलौती पुत्री) को स्कूल तो जाना है नहीं फिर किस लिए सब्जियाँ काटने बैठी है इस पर उसका मुखरबिन्दु से ऐसी गोलियाँ बरसने लगी कि मैंने चुप रहना ही श्रेयस्कर समझा। हाँ उस बौछार में मात्र इतना ही सुना सुन पाया कि सुबह-सुबह घर से बाहर निकलूंगा तो कुछ भोजन-पानी की व्यवस्था कर रही है। उसके चुप हो जाने के बाद मैंने बताया हमलोगों का नाश्ता-भोजन सब व्यवस्था हो चुकी है। तब जाकर शांत हुई। मेरी बेटी घड़ी का अलार्म चार बजे का लगा दी। वैसे मेरा अभ्यास साढ़े तीन-पौने चार बजे का है।

ठिक अभ्यासानुसार मैं जाग चुका था। कुछ देर बाद घड़ी का अलार्म भी बज उठा। बिस्तर त्यागा और नित्यादि कर्म से निबटकर कपड़े पहना एवं तैयार। पत्नी-बेटी भी जग चुकी थी। मेरे लिए चाय बनी, मेरे बिटिया एक पॉलीथीन पैकेट लाकर मुझे दी। खोलकर देखा उसमें तौलिया, छाता एवं एक पैकेट बिस्कूट है। सही समय पर अपना पाँव बाहर निकाला साथ में सायकल ली। रेल स्टेशन से मेरा घर लगभग चार कि.मी. दूर है। स्टेशन से थोड़ी दूरी पर सायकल गैरेज में जमा रख दिया। अब तक आकाश का पूर्वी कोना लाल तरुनाई लिए महकने लगा, पक्षियों का झुण्ड भी छोटी-छोटी झटिका टुकड़ियों में दैनिक संग्राम के लिए निकल पड़े थे। प्रातःकालिन वातावरण में उनकी चहचहाहट बड़ी मधुर लग रही थी मानो संगीत की सप्त स्वर शांत गगन मंडल को नई उर्जा से स्पन्दित कर रहा हो। मेरा मन इससे प्रभावित हुए बिना नही रह पाया। अपने अन्दर एक नई स्फूर्ति का अनुभव कर उस संपन्न सत्ता को धन्यवाद दिया। हमारी प्रकृति की उदारता देखो जहां उड़ते हुए खगों के झुण्ड एवं मुझ में क्या कोई संपर्क दिखाई देता है और व्योम का बदलता स्वरूप कालिमा ओढ़े चादर के स्थान पर लालिमा जो कुछ ही पल में उज्जवलता का रुप ले लेगा। सबमे कौन सा आकर्षण है जो सोचने को बाध्य करता है सभी पृथ्वीवासी एक-दूसरे के निमित्त मात्र हैं। घर से स्टेशन पहूंचने मे 15 मिनट का समय लगा। टिकट कटाई वापसी सहित। लोकल ट्रेन आई 5 बजकर 20 में, सीट खाली मिली बैठ गया। बोगी के चारो तरफ नजरें दौड़ाई, पुरा बोगी ही सब्जियों से भरा पाया। टोकरी पर टोकरी दरवाजे पर ऐसे ढंग से रख दी गई थी कि किसी भी यात्री को चढ़ने-उतरनें मे कठिनाई के सिवा कुछ नही मिलेगा। बोगी में सीट एवं सामान रखने का बाँक शाक-सब्जियों के बस्ते, पोटली तथा गठरियों से अटे पड़े थे। यूं कहा जा सकता है कि प्रातःकालिन लोकल ट्रेनों की बोगियां यात्रियों का न होकर सब्जियों की बोगी कहलाती है। इसका मतलब यह नही कि यात्री नही रहते हैं-रहते हैं पर उंघते हुए घोड़े अर्थात सब्जी बेचनेवाले जिनमे नारियों की संख्या अधिक है। कितनी दूर-दूर के गाँव से अपने पति व बच्चों को छोड़कर मात्र पेट की ज्वाला मिटाने केलिए रात अन्धेरा रहते ही घर से बाहर निकलना पड़ता हैं, पुरूषों को ही जब प्राण हथेली पर रखकर निकलना पड़ता है और ये नारियां कितनी साहसी है। अद्भूत लगता है इनका अस्त-व्यस्त रुप, उलझे बाल तथा एक सीट पर दो जन का सर-पांव एक कर के सोने की लापरवाही। साहित्यकारों या बुजुर्गों की शब्दावली “नारियों का आभूषण लज्जा है” झूठा लगता है। इन्हे देखकर लगता है जैसे पागलों का कोई प्रदर्शनी सजी है। जो लोग (स्त्री-पुरुष) जगे हुए हैं आपस में ऐसी भाषा का प्रयोग हंसी-मजाक के लिए कर रहे हैं कि कुछ मत पुछो। जब-जब कोई स्टेशन आती है सब्जियां लदी झूड़ियों तथा गठरियों को उतारते समय ऐसे अपशब्दों का प्रयोग नारियां कर रही कि बात-बात में गालियां बकनेवाला पुरुष महारथी मैदान छोड़कर भाग जाएगा तथा मेरे ऐसे को तो समझ ही नही आ रहा था कि वास्तव में कौन स्त्री है और कौन पुरुष है। और मैं समझना भी नही चाहता क्योंकि आजकल स्त्री-पुरुष एक समान है का आंदोलन चल रहा है-पुरुषों को अत्याचारी एवं स्त्री पीड़ीता है से स्त्री को मुक्ति मिलनी चाहिए। कैसी मुक्ति यह तो नारियां ही बोल सकती है। हांलाकि मुझे लगता है यह लड़ाई स्त्री-पुरुष समानता की न होकर स्वयं को पर्दे पर प्रदर्शित करने की प्रतियोगिता है जबकि समाज को आदर्श रुप देनेवाले आन्दोलनरत व्यक्तित्वों की संख्या नगन्य है। मैं भी पता नही कहां भटक गया। इन सबके बीच बोगियों में जल रही बत्तियां लग रह थी कि बोगी में सवार सभी यानी सब्जी बेचनेवाले का शरीर प्रातःकाल ही बेसरकारी संस्थानों में नौकरी पर जा रहे भद्रोबाबूओं के शरीर से स्पर्श मात्र से ही शायद किसी गंदी वस्तु से चिपक गये हैं ऐसा व्यवहार कर रहे हैं और मुझ जैसा छोटा-मोटा साहित्यकार को मुंह चिढ़ा रहे थे। देखते-देखते मेरा स्देशन टिटागढ़ आ गया। घड़ी में दैखा 5 बजकर 46 हो चुका है।

रेल स्टेशन से ऑटो स्टैण्ड तक पैदल ही गया कारण अन्य समय में यह सड़क इतनी भारी रहती है कि छोटी सी असावधानी पर यह सड़क आपके हाथ-पाँव को लगेगा सहलाने। तथा सहपथाचारियों की लाल-लाल त्यौरियां चढ़ी मुखमंडल आपको कच्चा चबा जाएगा। उपर से सायकलों-बाईकरों की ऐसी धूम रहती है जैसे पूरे सड़क ही उनकी बपौती है। ट्रॉफिक नियम उनके जेब में। यदि किसी तरह सड़क को पार कर लिया तो लगेगा दो गिलास ठंढा पानी पी लूं। ऑटो तो खड़ी मिली, जाकर बैठ भी गया पर समय बीतता जा रहा था लगता है जैसे अन्य सहयात्रियों की मुझसे कोई शत्रुता हो। ऑटो रानी ने मेरे प्रेम को स्वीकार नही की, बड़ी कठोर निकली क्योंकि एक यात्री तो छः का भाड़ा देगा नहीं। मेरे लिए ऐसे बैठे रहना यंत्रणादायक थी। कही देर न हो जाय और मेरी राह मिहारते-निहारते लघुयात्रा की रथ मुझे छोड़कर चली गई तो मेरा क्या होगा, किसको सुनाऊंगा अपनी व्यथा। प्रत्येक क्षण मेरे लिए पहाड़ सा लग रहा था।

सहयात्री की अपेक्षा करते हुए और भी दस मिनट कट गए और स्वभिमान ने मुझे कहा यार जब 11 नं की बस तुम्हारे पास हो तो चिंता क्यों और मैं 15 मिनट में लक्खीघाट पहुंच गया पर यहाँ भी बड़ी निष्ठूरता पूर्वक मुझे चिढ़ाया गया। जैसे ही घाट पर पहुंचा नौका जेटी छोड़ चुकी थी। मुझे अपने आप पर क्रोध आ रहा था। क्या आवश्यकता थी ऑटो पर बैठकर दस मिनट का प्रेमालाप करने की वह भी ऑटो सुन्दरी से। कही सचमुच पीछे न रह जाऊँ। मेरे हृदय की धड़कन बढ़ गई। घाट के काउन्टर से टिकट लेकर पुछा दूसरी नौका के बारे में, मन में हल्कापन आया । दूसरी नौका ठीक पाँच मिनट बाद ही खुलेगी। अब यहाँ एक मजेदार बात कहूंगा ऑटो स्टैण्ड से घाट पर पहुंचे लगभग आधा घंटे होने को है पर अभी भी वो ऑटो सुन्दरी नहीं आई जिसका प्रथम दर्शनार्थी मैं था। मैं बड़ा खुश हुआ 11 न. बस का प्रयोग करने के सिद्धांत पर नहीं तो अभी भी मैं वही रहता। मेरी नौका की रस्सी खोल दी गई थी और धीरे-धीरे माँ गंगा के वक्ष को चीरते हुए आगे बढ़ी। भोर की मां गंगा एकदम शांत-स्निग्ध तथा गंभीर। उसकी मंद-मंद प्रवाह पर मंद-मंद पवन की थपकी जैसे स्नेहमयी माँ अपने शिशु को हल्के-हल्के जगा रही हो और वह शिशु गहरी नींद के पालने में बेसुध सोया है।। माँ की ममता कितनी सजग होती है कि उसके संतान को अचानक जाग जाना कष्टदायक होगा। गंगा मैया की जल राशि की सौम्यता को देखकर लगता ही नहीं हरिद्वार में मैंने जिस गंगा की अपरिमेय ऊर्जा को देखा था क्या वही यहां पर प्रवाहित है एकदम नहीं। बिल्कुल उल्टा क्योंकि हरिद्वार की गंगा रौद्रता की मूर्ति है पर यहां की गंगा एकदम शांत-गंभीर। हमारी नौका यांत्रिक है। इंजन लगी है। इसकी भक-भक और जलराशि को चीरते हुए नौका आगे बढ़ने से चच्च-चच्च की ध्वनि सब निलकर एकाकार हो गया है जहाँ हम सबका अलग अस्तित्व है सबका सहवास है किसी को किसी से भी शिकायत नही है। धन्य हो माँ गंगा तुझे देखकर भी किसी के मन में क्यों नहीं विचार उठता है कि बढ़ते रहना ही सत्य है। इतनी स्निग्धता शांत वातावरण में मेरे बगल में बैठा एक 17-18 वर्षीय युवक गुटखा का चभर-चभर आस्वादन कर रहा था और गंगा के जल में फच्च-फच्च कर थूक रहा था। थूकते वक्त उसका मुखमण्डल विकृत हो उठता था। मेरी दृष्टि जब उसकी दातों पर पड़ी, उबकाई आने लगी क्योंकि उसके दातों का कालापन जैसे कम उम्र में उसके बुढ़ापे की प्रति छवि दिखा रहा हो। गुटखे का थूक गंगा के जल में पड़ने से ही मेरे मन में लगा मनुष्य अपने को श्रेष्ठ कहता है – पर कैसे प्रकृति ने उसे स्वस्थ जीवन – यापन करने के लिए आवश्यकता की सारी वस्तुएं शुद्ध रुप में प्रदान किया है और मानव उसे अशुद्ध कर ही उसका उपयोग करता है। गंगा की पवित्रता को कलुषित कर कैसे उसे देवताओं को अर्पण करता है वाह रे वर्तमान केवल दिखावा को ही युक्तिओं से सही मानने को बाध्य करता है। व्यवहारिकता में बेलून में छेद। अपनी ऐन्द्रिक लिप्सा को पुरा करने में इतना डूबा रहता है कि वह एक भयावह अंत की ओर आगे बढ़ रहा है पर उसे पता नहीं चलता है। वह स्वयं चारो ओर निर्मित वातावरण को कैंसर का रुप प्रदान कर रहा है। मैंने अपने ध्यान को हटा निर्मल तटिनि के अथाह जल राशि को निहारने लगा। शांति ही शांति की अनुङूति हो रही थी। पर रह-रहकर एक गंध मेरे नथुने से टकराकर मन की मुग्धता को भंग करने लगी। गंध आनेवाली दिशा की ओर मेरे ग्रीवा एवं लोचन द्वी बार-बार घुम जा रही थी। जीव-जगत में ज्ञानेन्द्रियां ज्ञान देने वाली अपनी निष्ठा पर कभी आँच नही आने देती है। अपने नाम को सार्थक करते हुए शायद मनुष्यों से कहती है, हे पृथ्वी के श्रेष्ठ प्राणी अपने कार्य से मुँह न मोड़ो। कार्य का होते रहना ही तुम्हारा जीवन है।

        अब हमारी नौका किनारे की ओर हौले-हौले हिचकोले खाते हुए आगे बढ़ रही थी। नगियां अपने तटों पर ज्याजा ही चंचल रहती है और चंचल जलधारा जोरों की लहर सागर की तरह नहीं उछाती है पर व्यवहार ऐसा करती है कि नावें तिनके की भाँति गतिशील हो जाती है। यह देखकर अच्छे से अच्छे सूरमा भी पानी-पानी हो जाते हैं। अभी भी नाव जेटी से दस-पन्द्रह फूट दूर ही थी। सभी यात्रियों में हड़बड़ी शुरु हो चुकी थी और नाव का जो हिस्सा जेटी से भिड़नेवाला था उसी ओर इकट्ठे होते जा रहे थे जिससे नाव का सामने वाला हिस्सा अधिक भार के कारण बैठने लगा था और नौके का पिछला हिस्सा उपर की ओर। इस स्थिति में नौका कभी भी किनारे पर उलट सकती है। इसलिए नौके का नियंत्रक बड़े कर्कश स्वर में कहा  का हो, ससुरारी जाय के बा। चलो पीछे आओ। पर उसकी बात को कौन सुनता है  बाँस की बनी जेटी से अभी भी नाव दो फूट दूरी पर होगी सामने से दो-चार व्यक्ति छलांग लगाने को तत्पर। यात्रियों में से किसी ने कहा इतनी ही जल्दी है तो विवाह रथ पर सवार हो गये होते नौके पर सवार होने की क्या आवश्यकता थी,एक ही छलांग पत्नी स्वर्ग पहुंचा देती। प्रायः सारे यात्रियों ने इस कथन को सुना। कुछ के होंट पर मुस्कान फैली तो कुछ के नेत्र तौप के गोले बरसाने को तैयार। मैंने उस व्यक्ति की ओर देखा जिसकी मुखरविन्दुओं ने अमृत वचन सुनाए थे। उसने मुझे उसकी ओर देखते पाकर प्रभावहीन रौं में कहा – डरपोक कही कही के मात्र बोली और कपड़ों से ही सिनेमा के नायक बनते हैं। नाव जेटी से जा लगी। माँझी नाव कीकाछी-डोरी ले जेटी पर उतरा एवं काछी को जेटी में फंसाकर अभी बांधने के लिए नाव को खींचकर सही स्थान पर बांध भी न पाया कि यात्रीगण धुप्प-धाप कर उतरना प्रारंभ कर दिया। इससे खीझकर माँझी बोल उठा – हाँ-हाँ, जा ए भाई तू –ही फस्ट रही-अ। णैं धीरे-धीरे जेटी की ओर बढ़ रहा था, पुनः वही गंध मेरे नासिका द्वार में प्रवेश कर मेरा पेट फुला दिया। कुछ ही पल में मेरा जी मिचला उठा। पीछे मुड़कर देखा वही महान कलाकार जिन्होने अपनी वाक् क्षमता से यात्री समूह को आनन्द प्रदान किया था वो मेरे पीछे कतारबद्ध है उतरने को। यह गंध चुल्लूखोरों को अलग पहचान देती है। इनके आराध्य चुल्लू बाबा हं जिनका कपाट अपने भक्तों के लिए ब्रह्म मुहूर्त में ही खुल जाते हैं और भक्तगण सही समय पर पहुँचकर श्रद्धार्घ्य निवेदन करते हैं। जय बोलो बाबा चुल्लू देव की। हमारे शिक्षित वर्ग एवं सरकारी कर्मचारियों को चुल्लू बेचने वाले से कर्तव्य, दायित्व का पालन करने की प्रेरणा लेनी चाहिए ताकि अपने कर्मस्थलों सही समय पर पहुंचा करे एवं जनता के कार्य को सही समय पर करे।

जेटी पर उतर कर घाट से बाहर आया घड़ी में देखा 7 बज रहे थे। वर्षाकाल अपने पश्चिम बंगालमें विदाई समारोह की ओर उन्मुख थी और अपनी पुरी शक्ति के साथ अपनी छोटी बहन शरत् को शारदोत्सव के लिए आनन्द की ऊर्जा से संपन्न कर रही थी जिससे देवी की आराधना कर सके। सारे पश्चिम बंगाल  वासी आनन्द की स्निग्छ धारा में स्नान करें। कोई भेद न रहे। धनी हो या गरीब, सभी ममतामयी माता का आवाहन कर पुण्य सलिला में गोते लगाएं।नौका से उतरकर जल्दी-जल्दी 11 न. रूट की बस को रास्ते पर पुरी गति से दौड़ा दिया। कही मेरे देर से पहुंचने पर वे लोग प्रस्थान कर जाएं और मैं यही न रह जाउं। ऐसा सोचते-सोचते आगे बढ़ रहा था। परन्तु जी.टी.रोड पहुंचते ही सौ गज की दूरी पर सेनदा को चाय दुकान पर खड़ा पाया जो मुझे घुंसा दिखा रहा था। वह सफेद पंजाबी वस्त्र में बड़ा सौम्य दिख रहा था। हम दोनों ने ही चाय की चुस्की ली। चाय पीते-पीते सेनदा को रास्ते पर जाती एक मोटी भद्र महिला को दिखाकर कहा –सेनदा, बस आज तो हाँ कह दो। आज तो बिल्कुल जवाँई सा लग रहे हो, पात्री की कमी तो पुरी हो गई । इसपर वह कृत्रिम क्रोध का अभिनय करते हुए कहा-अच्छा बेटा । तुम्हारे मन में लड्डू फूट रहा है और मेरा नाम भंगाते हो। मैंने अपनी बहन को तुम्हें दे ही दिया है। क्यों मुझे कष्ट देते हो। इसमें दुःख कहाँ है, मेरी सरहज आएगी। यह मेरे लिए कितनी खुशी की बात होगी उसकी कल्पना तो एक बार करके देखो......मैंने हंसते-हंसते उत्तर दिए। चाय समाप्त कर वहां से आगे बढ़े। महज पाँच कदम की दूरी मोड़ पर हमारे अन्य सभी मित्र पहुंचे हुए थे। उन लोगों के बीच एक महिला भी जो मेरे लिए अपरिचित। मुझे देख सभी बड़े प्रसन्न क्योंकि गंगा को पारकर एकदम प्रातः रिसड़ा पहुंचना बड़ा कठिन कार्य था। गोपालदा(गोपालचन्द्र नाग) और बुड़ोदा(अरुण गुप्त) दोनों ही उम्र में बहुत ही वरिष्ठ मेरे उत्साह और लगन की प्रशंसा की-तुम्हारी आयु लम्बी हो, तुमने जितना कष्ट और परिश्रम यहाँ आने में किया है हम सबको तुम पर गर्व है। ईश्वर सदैव सहाय रहेंगे। लगभग साढ़े सात बजे हमारी सफेद रंग की राजहंस अपनी सेवा देने के लिए उपस्थित हुई। जिसका सारथी बाईस-तेईस वर्ष का युवक। एक-एक करके हम सभी अपने आसनों पर विराजमान। मेरे और सारथी के मध्य जानादा(संतु जाना), मध्य रौ में गोपालदा की पत्नी, अपरिचित महिला सहयात्री एवं गोपालदा का तीस वर्षीय पुत्र और सबसे अंतिम रौ में गोपालदा ,बुड़ोदा सेन एवं बिड्डु(श्यामसुन्दर अग्रवाल)। हमारे साथ कुछ और सहयोगी जैसे दो थैले जिसमें जल से भरी दो बोतलें, बिस्कूट, चॉकलेट,चानाचुर की पैकेटें थी। पाँच मिनट हमारे राजहंस ने डैने फड़फड़ाए तथा काली कालिन पर कदम बढ़ाई। बौदी ( नई सहयात्री ) दुर्गा-दुर्गा का जाप की एवं शुभ याक्षा हेतु मातृ देवी से सबकी मंगल कामना की हमारे सभी सहयात्रियों भी प्रणाम किया। हम लोगों का राजहंस और काली कालिन में मित्रता स्थापित हो चुकी थी लेकिन दो मिनट भी न हुए थे राजहंस के सारथी एक पेट्रोल पंप पर राजहंस को रोककर उसका पेट भरा दिया। सेनदा इसके लिए तीन सौ रुपए का भुगतान किया।  तत्पश्चात प्रचलः। मैंने गोपाल दा से कहा – गोपाल दा यह कैसा राजहंस है जिसे पाँच कदम चलते ही भूख लग गई, बड़ा पेटुक है।

क्या करोगे काम – धंधा करो या मत करो,  भूख तो लगती है। हंसते – हंसते गोपाल दा ने प्रत्युत्तर दिया और हम लोग हंसने लगें परंतु हमारी यह हंसी राजहंस के सारथी को बुरी लगी और नाराजगी भरी स्वर में उसने कहा –

गाड़ी के मालिक से तो आप लोगों की बात हो ही गई होगी कि तेल खर्च आप लोगों का रहेगा फिर आपलोग ऐसा क्यों कह रहे है और उपर से राजहंस – राजहंस कहकह मेरी गाड़ी का मजाक उड़ा रहें।

इस पर हम सभी कुछ पल के लिए चौंक गए। मैंने उसके चेहरे को देखा , उसका हाथ स्टेयरिंग पर पर चेहरा नाराजगी से नहाया हुआ था। तबतक हमलोग सहज हो चुके थे एवं पुनः हंसी के सागर में डूब गए । नई सहयात्री ने मोर्चा संभाला तथा सारथी महाशय को अपने लच्छेदार शब्दो का उपहार दी –

अरे भाई नाराज क्यों होते हो, तुम्हारी टाटा सुमो का रंग एकदम दूध की तरह और गाड़ी के भीतर बैठने की व्यवस्था आरामदायक है साथ ही साथ तुम भी दूध की भाँति सरल हो जिसकी तुलना नहीं की जा सकती है जो अपनी सवारियों का ख्याल रखता है। कितनी सावधानी से सड़क के खाना – खन्दों से बचाकर गाड़ी चला रहे हो। अब तुम्ही बोलो की तुम्हारी टाटा सुमो को यदि हमने राजहंस कहा तो क्या गलत कहा। सारथी महाशय के उपर इन शब्दों का क्या असर पड़ा वह सारथी ही जाने पर पुरी यात्रा में क्रोध नही दिखाया। जब बौदी उपरोक्त सब्दों की सृजन कर रही थी मेरे बाजू में बैठा जाना दा मेरा हाथ हौले से दबाया एवं मेरे कान के पास अपना मुंह लाकर कहा – बेटा को बेलुन की तरह फुला रही है बौदी। मैं मुस्करायए न रह सका। बौदी की बाते समाप्त होने पर पनी गर्दन पीछे घुमा उन्हें धन्यवाद दिया पर वो तो नहले पर दहला मारी और बोली –

इतनी जल्दी भी क्या है , अभी तो अपनी जीवन यात्रा आरम्भ हुई है । मैं झेंप गया। उधर सारथी एकसीलेटर पर दबाव बढ़ाता जा रहा था, सो रथ सर्र-सर्र करते हुए श्रीरामपुर स्टेश्न के फ्लाईओवर पर चढ़ रही थी जिसके रेलिंग का रंग-रोगन देखकर लग रहा था जैसे हम लोग फूलों की क्यारियों के बीच से गुजर रहे हैं। चुंकि सुबह का समय था और यानवाहनों की संख्या कम थी। आती-जाती यानवाहनों की गति देखकर लगता है कि पलकों के सामने से छोटी चिड़िया फुर्र से उड़कर चली  गई । जब हमलोग ठीक फ्लाईओवर के बीचोंबीच पहुंचने को होंगे तभी उड़ान पुल के नीचे से रेल्वे ट्रेक पर एक लोकल ई एम य़ु धड़ – धड़ – धड़ करती हुई गुजरी। उसकी गति और ध्वनि की शक्ति के आगे उड़ान फुलसहित हमारी राजहंस जैसे हवा में तैर रही हो। अब हम समतलीय सड़क पर उतरे जानादा केहुनी से खोंचा दिया। मेरा ध्यान अब तक जिस दृश्य को उदरस्थ कर रहा था उससे संपर्क छिन्न हो गया। सो मैंने पुछा – “क्या हुआ?  अरे भैया, सारा प्रकृति को तुम्ही अपने नेत्र में बसा लोगे तो बाकि लोग क्या करेंगे !” कृत्रिम अभिमान मेरे सामने। मैं थोड़ा सा मुस्कराया पर         पुनः गंभीर। इतने तो निष्ठुर न बनो। कुछ तो बोलो, मुंह चलाते रहो। मुझे इस तरह की टोकाटोकी अच्छी नहीं लगती है और मैं विरक्ती को साथ कहा- क्यों किस खुशी में

बड़े अच्छे भले हो। एक तो सामने बैठे हो उपर से गुंगे। बात-चीत करते चलने से रास्ते की दूरी का पता ही नही चलता है। जाना दा अपने ही लय में होलते चले गये।

ठीक है-ठीक है, सामने देखो। अब तक मैं सहज हो चुका था और कुछ कहने ही जा रहा था कि बौदी बोली- जाना बाबु, आप ठहरे बैचलर। आपको तो पता ही नहीं है किधर देखें किधर न देखें सो ठाकुर पो (छोटे देवर ) आपकी मदद कर रहे हैं। सो जाना दा झेंप गये और सभी यात्रीगण हँसने लगे। पिछे बैठे गोपाल दा भी अपने को रोक न सके, बोल पड़े – क्यों बेचारे ब्रह्मचारी के पिछे पड़ गये।

वो आप नहीं समझेंगे। दो मिनट की शूटिंग थी अब समाप्त। एकबार फिक ठहाका। हमारी गाड़ी अब बी. टी.अर्थात बम्बे ट्रंक रोड पर अपनी उपस्थिती दर्ज करा चुकी थी एवं हवा से बातें कर रही थी या कहा जाय हवा हमारी राजहंस के साथ गप्पे मारने लगी। रास्ते के दोनों किनारे लगाए गये ( वृक्षारोपण अभियान के अंतर्गत) पेड़ों के झूरमुटों के बीच इतनी तेजी से गुजर रही थी जैसे बन्दूक से गोली दन-दन करे निकल रही हो। सड़क के दोनों तरफ की जमीन बिछाई गई हरी कालिन की भांति दिख रही थी। खेतों में लगे धान के पौधे वायु के सुर – ताल में आत्म विभोर हो बलखा – बलखा कर नृत्य कर रहे थे। यह नृत्य भी क्या कहा जाय श्रृंख्लाबद्ध ड्रील करते सैनिकों को भी मात दे सकती है। पवन के निर्देश पर सर को उपर उठाते हुए दाहिने से बांये या फिर बांये से दाहिने। पौधौं का बलखाना बड़ा ही अद्भुत लग रहा था। कौन दर्शनार्थी होगा जिसके दृगपटल उसके ओर से अपना मुंह मोड़ ले। सड़क के दोनों किनारे धान का विशाल श्यमला साम्राज्य फैला हुआ था। एकबार फिर कहूंगा धान ही धान – हरियाली ही हरियाली एवं इनके बीच कुश फूल के पुंजो का झूमना लग रहा था कि धरती ने दिवाकाल में ही शशी को और भी शीतल करने के लिए अम्बर से उतार अपने वक्ष से चिपका लिया हो. शशधर भी सरल पवित्र, निश्चिंत अबोध शिशु की भांति मां के अंक में पूर्ण निद्रा मग्न हो। कुश को फूलों को चन्द्रमा हां चन्द्र कहना ही उपयुक्त होगा क्योंकि हल्के काले मेघों के मध्य शुक्लपक्ष का शशी घुमता हुआ बहुत ही सुन्दर दिखता है, ठीक इठलाते कुशफूलों की झुरमुट भी लहलहाते धान के पौधों के बीट मचल – मचल अपनी रंग और कोमलता का बखान कर रहा था। एक ऐसी मुग्धता और मादकता  के बीच हमारी राजहंस अपने डैने को फैलाए पेंग पर पेंग बढ़ा रही जो ऊँचे – ऊँचे पलाश और कृष्णचूड़ावृक्षों की घने कतार से निर्मित थी। इन वृक्षों में लदे पीले, लाल एवं लाल – पीले रंग के मिश्रित छींटेवाले फूल झूलता हुआ सेज तैयार कर दिया। ऐसे सेज की मोहकता और मादकता की अनुभूति या तो हवाई सैर या दूर से दृष्टि को उन्मुख करके हो सकती है क्योंकि यदि हम इन वृक्षों के तले खड़े होकर अवलोकन करे और कहे वाह क्या अपरुप सौन्दर्य है तो बिल्कुल कुआँ स्वयं प्यासे को पास पहुँची वाली कहावत बन जाएगी। वैसे सुन्दरता का परिकलण करने के लिए सुन्दर चक्षु का होना आवश्यक है। जिस तरह से सावन को अन्धे को चारो ओर हरियाली दिखाइ देता है उसी तरह से प्रकृतिवश मन सुन्दर हो तभी मन से नियंत्रित लोचन सुन्दरता का अवलोकन करता है एवं मन को संवेदित करता है। पीले रंग के आवरण में लाल रंग का मिश्रण शुभ योग का प्रतिक है जिसे हिन्दुस्तानी समाज में हल्दी का पीला दाग एवं नई नवेली वधु लाल रंग की साड़ी पहनने का प्रचलन है अर्थात ये दोनो ही रंग नई सृष्टि का संदेश देते हैं। पीले रंग के महत्व को किसी गीतकार ने बड़े ही आकर्षक शैली में पिरोया है.........हे गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ईबो, सजना से कर दे मिलनवां........अर्थात पति के विरह में उतावली पत्नी मां गंगे से प्रार्थना करती है कि हे मां गंगे पति से मिलवा दो मैं आपको पीले वस्त्र भेंट करुंगी। पिछली सीट पर हमारे तीन बंधु पता नहीं किस विषय पर तर्क कर रहे थे और हंस भी रहे थे। हंसी तो ऐसी सुनाई दे रही थी जैसे रंगमंच पर कोई अभिनय हो। हम शभी अपने – अपने ढंग से इस यात्रा का सुख का उपभोग कर रहे थे। दोनों बौदी न थमनेवाली बातों में मशगूल , गोपाल दा का पुत्र कोई रविन्द्र संगीत गुनगुना रहा था, मेरी बोलती बन्द पर नयनों की तकरार, जाना दा बड़े मजे से भागती सड़क के किनारे के वृक्षों की गिनती और रह – रहकर केहुनी से मुझे खोंचा दे दिया करता था इस पर मेरी विचारों की तंद्रा भंग हो जाती थी और सारथी की नजर सामने पीच – पत्थर से बनी कालीन पर सफेद राजहंस को उड़ाने में मदद करता स्टेयरींग को दायें – बांये घुमा रहा था। दो घंटे होने को आ गया जबकि मुझे ख्याल ही न था हमने कितनी दूरियां तय कर ली। बिड्डू एवं सेन दा अचानक हा – हा – ही –ही करना बन्द कर दिया साथ ही बौदियों का टेपरिकार्डर ऑफ तो रविन्द्र संगीत शिल्पी ने गुंजन राग पर ताला दिया। तो क्या हमारी राजहंस भी मौन व्रत पालन करने जा रही है! नही वह तो अपने पंखों को पसार कर जमीनी नभ को पलक झपकते ही पार करने को आतुर थी। सारथी का पाँव एक्सिलेटर को दबाए हुए था मीटरकांटा 80 पर चिपका हुआ था। सेन दा से रहा नही गया, थोड़ा मजाकिया लहजे में कहा – भाई मेरे अब थोड़ा प्रात – राश ग्रहण कर लेना चाहिए। उनका ऐसा बोलना और हम सबने हाँ – हाँ कहकर भूख की घंटी बजा दी। वो कहते हैं देखादेखी। देखादेखी करके मनुष्य अपने परिवर्तन को अंतिम रुप देता है। जाना दा ने कहा – लगता है हमलोग काशी विश्वनाथ पहंचने वाले हैं सो वही पर गाड़ी को रोकी जाय, वहां दुकानें भी मिल जाएगी। सारथी महोदय ने जाना दा का समर्थन किया। यह देख सेन दा ने मुझसे कहा – क्या श्रीमान धी – गंभीर पक्षी को बोलना भी आता है। मैंनं उनकी तरफ बिना गर्दन मोड़े उत्तर दिया की अब बेचारा पक्षी भी क्या करे, हमारे बुड़ो दा दो घंटे से अपने बंधु का खबर नही ले रहे हैं इसलिए पक्षी को बोलना पड़ा।

हमलोगों का राजहंस बस दस मिनट के अन्दर में काशी विश्वनाथ सेवा समिति भवन के एकदम मुख्य दरवाजे के सामने। रास्ते के बगल में सारथी ने स्तव कहा तथा सुमो के पिछले और दाहिने तरफ की दरवाजा को खोल दिया। उससे पहले ही जाना दा और मैं दरवाजा खोल बाहर निकल आया था। दो घंटे की उपविश: के आलस्य तोड़ते हुए एक ही नजर में रास्ते के सभी दुकानों की स्थिति को भांप लिया। सबसे पहले हमने उस निश्चित स्थान का अनुसंधान किया ताकि थोड़ा योग –वियोग कर लिया जाय। अभी दस कदम ही चला था कि बिड्डु की पीछे से आवाज आई। सो रुक गया और मुड़कर देखा वह बड़ी तेज कदमों से हमारे नजदीक आ रहा है। एकदम निकट आ जाने पर कहा – “थोड़ा हल्का होना है। तो इसमें रोकने की बात क्या थी, पीछे – पीछे चले आते। हम दोनों भी तो उधर ही जा रहे हैं”। मेरी बात सुनकर जाना दा मुस्काते हुए कहा – “कौन सा हल्का बड़ा या छोटा”? “बड़ा वह भी खुली जगह में! पब्लिक से पिटने का शौक नही है”। इस पर हम तीनों ही हंसे। हां तो शंका का निवारण हुआ तो रास्ते के दोनों ओर के दुकानों का पर्यवेक्षण करते हुए वापस लौटने लगे। बिड्डु एक दुकान के सामने ठहरा तथा मुंह धुआं छोड़ने का सामान एवं कुछ चॉकलेट खरीदा और हमदोनों की ओर बढ़ा दिया। चॉकलेटों को पॉकेट के हवाले कर जाना दा को संबोधित कर कहा – `दादा, यह बेटा सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक वाक्य को झूठ बनाने के लिए रिश्वत दे रहा है`। फौरन बिड्डू ने बात को आगे बढ़ा दी –` बच्चा तो आप ही लोगों का हूं न`। जाना दा उसके सर पर स्नेह का हल्का चपत लगाया और हम लोग वापस अपने राजहंस के पास पहुंचे। काशी विश्वानाथ सेवा समिति एक गैर सरकारी संगठन है जो तारकेश्वर जल चढ़ाने वाले काँवरियो का विश्रामागार और बहुत ही सुन्दर ढंग से व्यवस्थित है। रास्ते के किनारे ही लोहे के पाइपों पर काँवर रखने एवं बैठने का प्रबंध है। काफी बड़े भूखण्ड पर इसका भवन निर्मित है। प्रधान फाटक से अन्दर प्रवेश करते ही सामने विभिन्न प्रकार के फूलों के तरुओं से सजी – सजाई वाटिका सबका मन मोह लेती है जिसकी सौन्दर्य का आस्वादन हैतु पलके स्वतः ही स्थिर हो जाती है। मन की चंचलता को शांति मिलती है पर यहां एक बात कहने ही होंगे हम मन में जैसे विचार रखेंगे, दृश्यावली वैसे ही गोचर होंगी। प्रातःराश की प्लेटे हम सबके सामने केले, अण्डे, बिस्कुट, संदेश तथा कालाकांद मिठाई से परिपूर्ण। इन्हें उदरस्थ करने के पश्चात सेन दा के प्रस्ताव पर चाय की दुकान पर जाना दा एवं सारथी को छोड़करसारे के सारे उपस्थित। गर्म – गर्म भाप नासारन्ध्र को आराम और गला चाय को अन्दर जाने की अनुमति दे रही है तो फिर मैं कैसे पिछे रहूं। चाय की चुस्कियां समाप्त करने के बाद सेन दा दोनों महिला सहयात्रियों के सुन्दर विश्राम गाह का अवलोकन कराने हेतु अन्दर ले गए और लगभग पन्द्रह मिनट बाद वापस आए। उन दोनों सहयात्रियों ने इस स्थल के बारे में बोली – अपूर्व। बहुत सुन्दर। किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं। यहां के प्रबंधकों एवं व्यवस्थापकों को धन्यवाद देना पड़ेगा। एक – एक कर हमलोगों ने अपना आसन ग्रहण किया और हमारी राजहंस हवा से बातें करने लगी। समय का भी तो ख्याल रखना पड़ता है क्योंकि अभी भी हमें एक घंटे की दूरी तय करनी थी। परन्तु ख्याल रखने भर से खाम आगे नहीं बढ़ता है। बरसात ने सड़क का कबाड़ा निकाल दिया था। खाना-खन्द की कमी नही जिसे पार करने में राजहंसअपनी गति को रह – रहकर कम करती तो कभी बढ़ाती। दूसरी बात सड़क के दोनों किनारे ही बाजार – हाट, छोटी दुकान, छोटे – बड़े कारखाने भी अपने पैर सजाये बैठी हमें उत्साहित कर रही थी पर ऐसे जगहों पर जनसंख्या घनी मिली क्योंकि सड़क के किनारे कच्ची सब्जी की मंडी थी सो भीड़ का वजन स्वाभाविक है उपर से स्पीड ब्रेकर जिससे श्वेत हंस की गति पर ग्रहण लग जाया करती है। कोलकाता शहर की दूरी बढ़ती ही जा रही थी। अतः सड़क के किनारे हाट – बाजार का महत्व बढ़ जाता है। आवश्यकता की सारी वस्तुएं एक ही स्थान पर उपलब्ध हो जाते हैं और कोलकाता की तरह लोगों का भागमभाग का रेला नहीं जो यदि किसी परिचित से भेट या सामना हो जाने पर औपचारिकता निभाना भी दूर। यहां किसी परिचित से साक्षात होना एक ऐसी मानवीय बंधन देखने को मिला जो स्वप्न की भांति लगा। संवेदना की झलक आज के वैज्ञानिक युग में विरल है, शायद ग्राम्य –जीवन का स्पर्श हो। वैसे वर्तमान की झोंका ने आधुनिकता में इस स्नेह को धूमिल कर दिया है, उन्नति के नाम पर मिट्टी के घर कंक्रिटों के महल में परिवर्तन कर सरलता को ग्रहण लगा खनखनाती सिक्कों के आकर्षण में आडंबर की चादर में चन्द्रमा को ही लपेट लिया और उसकी उज्जवल कांति को राहू निगल गया । फिर भी ग्राम्य - सहजता अपनी जड़ समेत मेदिनी से विच्छिन नहीं हुई। सूखते जा रहे वृक्षों में नई कोपलें मुस्कानें का प्रयास करती है। देहाती स्वभाव अभी पूर्ण रुपेण अंतिम सांस नहीं ली है।

अब हमलोगों की दूरी अपने गंतव्य से आधी ही रह गई है। हमने अपने घड़ी में देखा तथा मन ही मन अंदाज लगाया कि एक घंटे में एक महान विभूति की जन्मस्थली और कर्म भूमि पर पहुंच कर एकात्म होने का प्रयास करेंगे। अपनी श्वेत राजहंस पूरी वेग से सर्र – सर्र करती हुई आगे बढ़ती जा रही थी जैसे तीर कमान से छूटने के बाद वापस लौटती नहीं। रास्ते पर बोझ बढ़ता जा रहा था। डेढ़ घंटों पहले जो सड़क सुन्दरता की प्रति मूर्ति लग रही थी वह उबन बन चुकी और लग रहा था कि कब यह यात्रा समाप्त होगी। हमारे राजहंस के दोनों बाजू से सवारी वाहनों की हुईं – हुईं – धड़ – धड़ – गर्रर की ध्वनि से कान में सन्नाटा छा जा रहा था। बहरापन की स्थिति आ गई थी। अपने सहयात्रीगण भी दूषित परिवेश के शिकार हो गए थे। आने – जाने वाली गाड़ियों का धुआँ पीछे से निकालती हुस्स – हुस्स करती हुई गोल – गोल छल्ले बनाते हुए हमें मुंह चिढ़ाते हुए भागी जा रही थी क्योंकि हमलोग जिस पर सवार थे वह भी तो वही कर रही थी। केवल दिखने में दूधिया पर करनी में सबसे ताल मिलाकर चल रही थी। इसका असर हम सब पर भारी पड़ने लगा। हमारी गल्प कुंज की बोलती बन्द हो चुकी थी। बार – बार जम्हाई आ रही थी। आंखें जल रही थी। अतः इस कीचड़ से मन को उबारने हेतु गोपाल दा को आग्रह करने पर उनके पुत्र ने रवीन्द्र संगीत के साथ वार्तालाप प्रारम्भ किया। एक के बाद एक, तीन गीत गाया उसने। गला अच्छा था और जिस राग में हो शब्दो का उच्चारण स्पष्ट था तभी तो सभी लोगमंत्र मुग्ध हो वाह – वाह करने लगे। अचानक बूड़ो दा रंग में भंग डाला और वाह – वाही लूटने वाले पर अत्याचार। बुड़ो दा मेरा नाम लेकर कहा – मुझे रवीन्द्र – संगीत पसन्द नहीं परन्तु राष्ट्र-भक्ति या विप्लवी गीत बड़ा अच्छा गा लेता हूं। इसलिए एक ऐसा ही गीत गाकर हमलोगों के अन्दर नई उत्साह का सृजन कर दें। यह सुनकर मन ही मन मुझे चिढ़ आ रही थी तभी  तो अपनी प्रशंसा सुनकर एकदम मेढ़क की गले की तरह अपना सिना फुला लिया। परन्तु गाने गाना जहां – तहां सम्भव नही हैं, वह भी उस स्थिति में जब लोगों के बीच किसी को गाने के लिए कहे तो और भी मुश्किल। क्योंकि अपनी इच्छा या मन के कहे अनुसार कोई भी गीत हो लोग गुनगुना लेता है, पर दूसरे के कहने पर स्वाभाविक ही थोड़ी घबराहट बढ़ जाती है। सीने की धड़कन धक – धक के स्थान पर धड़ाक – धड़ाक करने लगता है। ऐसे में मन के अन्दर एक भय छा जाता है कि कही कोई बीच में ही टोक न दे। यहाँ एक छोटी सी बात अवश्य कहना चाहूंगा कुछ गायक या संगीतज्ञ ऐसे होते हैं जो दूसरे की त्रुटियां ढूंढ लिया करते हैं फिर लगते हैं सप्त स्वर का राग समझाने, इससे जो गा रहा था या बजा रहा था उत्साहित होने के स्थान पर हतोत्साहित हो जाता है। मैं ऐसे ही भँवर में फंसा डूबता – उतराता रहा। शेष में मुझे गाना ही पड़ा और साथियों की वाह – वाही भी बटोरा। उपर से गोपाल दा ने मेरी प्रशंसा को और भी एक कि. ग्रा. वृद्धि कर दिए।

गीत – संगीत की मन भावन आँधी थम चुकी थी। निरव होकर यात्रा का सुख ले रहे थे। हालांकि इसे मौन व्रत का पालन हो रहा है ऐसा नही कहा जा सकता है क्योंकि राजहंस बड़ी तीव्र गति से सड़क की दूरी माप रही थी और आने –जाने वाली सवारियां पों – पां कर सामने वालों से उसके लिए रास्ता छोड़ देने को कह रही थी। जैसे ही सामने से कोई वाहन निकट पहुंचने को होती तो लगता कि अब ठोका – तब ठोका । यह ठोकना तो हमारे मन का भ्रम था वह तो हमे पलक झपकाने का मौका ही नही दे रही थी और सर्र से गुजर जाती। इस तरफ की सड़क हरे – भरे खेतों के बीच बलखाती बिछी हुई थी और दौड़ने वाली वाहने निर्दयता के साथ रौंद कर चली जा रही थी। आसपास में गाँवो का कोई नामोनिशां नहीं। इतनी सुन्दर दृश्य अपितु घर या झोपड़ी का अता – पता नही बड़ा बेतुका लग रहा था  जबकि सड़क के दोनों किनारे आलीशान भवनें दिख रहे थे पर उसमें रहने वाले एक या दो जिससे इसे आवास कहना एकदम गलत था। अब आपही लोग बताएं ऐसी आवास स्थल को लोग भुतहा नहीं तो क्या कहेंगे। ऐसे आवास स्थल की दीवारें रहनेवालों को मुंह चिढ़ाती होगी। खैर यह तो यात्रापथ है। कही मरुद्यान तो कही सैण्ड ड्युन। हां एक बात से पीछे नहीं हटा जा सकता है मरुद्यान कारवां को सुकून प्रदान करता है, अपरिचित स्थानों पर गाँवों या लोक बस्ती भी पथयात्रियों को नई स्फूर्ति प्रदान कर उत्साहित करता है वैसे सामने एक नई फिल्म हमारा इन्तजार कर रही थी अपने अभिनेताओं के लटकन – मटकन – कमर झटकन दिखाने के लिए। राजहंस अपने लय में आगे बढ़ती जा रही थी कि अचानक सड़क के किनारे खड़े पहरेदारों के झुरमुट से आठ – दस की संख्या में हिरो लोगों की उपस्थिति हाथों में बिल लिए पूरे सड़क को अवरोध कर हाथ हिला रुकने का संकेत किया। राजहंस के सारथी ने रथ की लगाम खिंचा और रथ रुक गई। सड़क रोकनेवालों में चार सामने खड़े रहे एवं दो सारथी के पास और बाकी थोड़ी सी दूरी बनाए हमें घुरने लगे। बिल पर वाहन संख्या लिखी गई और फिर एक हाथ से दूसरे तथा दूसरे से तीसरे हाथ होता हुआ सारथी के पास पहुंचा । सारथी इधर-उधर की बातें कर उन्हें टालना चाहा पर देश को उन्नति के मार्ग ले जानेवाले आधुनिक युवा थोड़े ही अपने लक्ष्य से टलने वाले थे। अंततः सारथी पांच रुपये देने को प्रस्तुत हुआ , लेकिन वो लोग लगे त्यौरियां चढ़ाने – “हमलोग क्या भीख मांग रहे हैं! तुम जानते नहीं हो बाजार कितना उँचा हो गया है। सारथी ने कहा – बाजार से हर कोई परेशान है।“  इतना सुनना था कि ये लोग धमकियां देने लगे –“ ए भाई अच्छी तरह से कह रहा हूं चुपचाप दो नहीं तो गाड़ी साईड करो। हमें दूसरी गाड़ी देखनी है”। फिर वही युवक बिल काटने वाले साथियों से कहा  “अबे, फालतू में क्यूं बात बढ़ाता है इन्हें चन्दा तो देनी ही पड़ेगी देखते हैं कैसे गाड़ी आगे बढ़ाता है? “अबतक सफेद वाहन के पीछे आई गाड़ियां खड़ी हो गई और हॉर्न बजा-बजा कर ध्वनि प्रदूषण का रीकार्ड बनाने लगे। सामने इन उद्धारकों का व्यवहार सभी वाहने के लिए एक समान जैसे निरपेक्षता का पाठ पढ़ा रहे हों। जबकि सारे वाहनों का रुप युवाओं के लिए गर्व के समान था जिनसे ये युवा वर्ग धर्म की रक्षा करने को कटिबद्ध। हमलोगों बेचैनी अनुभव करने लगे। फटाफट बिल काटी जा रही थी और पीछे खड़ी वाहनों को वितरण किया जा रहा था एक-दो वाहन ऐसे भी थे जिन्होंने मांगी गई चन्दे का अक्षरशः भुगतान कर दिया और उन्हें साईड मिली तथा वे सर्र से निकलते गए। बाकी के मुंह ताकते रहे और उन्नत विचारधारा वालों से बहस कर रहे थे पर वाहन के अन्दर से ही यहां तक कि हम लोग भी। अंत में गोपाल दा ने एक फार्मुले ढूंढ निकाला। वे एक समाज सुधारक को पास बुलाया, पुछा –“ तुम्हें पता है इस वाहन में कौन जा रहा है”। सामने वाला थोड़ा चौंक गया। तब गोपाल दा बोले कि यह सरकारी गाड़ी है और सबको लेकर सिंगुर की ओर जा रही है। इतनी देर से देख रहा हूं पर अब लगता है कुछ करना होगा तथा गंभीरता के साथ कहा – “ओ सेन, थोड़ा नम्बर डॉयल करो तो”। बस इतना सुनना था कि पासवाला युवक दौड़ता हुआ शायद दलपति को संवाद पहूंचाया । वह दौड़कर पास आया तथा गिरगिट की भांति रंग बदलते हुये क्षमा मांगने लगा – “सॉरी सर, आप लोगों ने पहले ही बोल दिया होता”---हमारे वाहन का सारथी तैयार था ही उसने स्टेयरिंग घुमाई और राजहंस हुं –ई-इ----करती पेंग बढ़ाने लगी। हम सबने चैन की सांस ली और समवेत गोपाल दा को धन्यवाद दिया। सेन दा ने गोपाल दा से अपने स्वभावानुरुप कहा –“ वाह गोपाल दा वाह बहुत मजेदार। यह कितना रुपया किलो था”I गोपालदा केवल मन्द – मन्द मुस्कराते रहे। हमलोग की गप – शप पुनःअपनी लय पकड़ ली।

अरे भाई गोपाल ने गलत थोड़े ही कहा , वो तो वैसे भी रीटायर्ड डायरेक्टर ऑफ लायसेन्स सेल है ------बुड़ो दा बोले,

ठीक बोले रहे है-------संतु दा बीच में टपक पड़े,

ना –ना बुड़ो दा अभी सिंगुर आंदोलन का बाजार गर्म है। टाटा के नैनो कारखाना खोलने को लेकर अपने पश्चिम बंगाल में राजनीतिक उठापटक सरकार का बारह बजा रखा है और हमेशा सरकारी लोगों का आना-जाना लगा रहता है। इसी से ये लड़के डर गये और हमलोगों को निकल जाने दिया------सेन दा पुरी परिस्थिति का ब्यौरा सामने प्रस्तुत कर दिया।

चलो भाई, अच्छा हुआ इसी बहाने सिंगुर राष्ट्रीय संवाद शिरोनाम बन गया-------मैं भला क्यूं पिछे रहता,

जो भी हो गोपाल जेठु ने हम सबको सरकारी चाकर बनाकर ही छोड़ा-------बिड्डू ने चुटकी ली जिस पर सभी हंसने लगे। हंसी को थप्पड़ उस समय लगी जब सामने राजहंस की गति कमतर हो गई और रुक गई। कुछ पल में सारी इतिहास हमें परोसा मिला की सामने दुर्गापूजा के बहाने युवाओं की टोलियां इण्डिया की उन्नति को सशक्त कर रहे हैं। वैसे पश्चिम बंगाल में कदम – कदम पर क्लबों की भरमार है और इनके सदस्य गण इण्डिया को यानी कि बंगाल को सांस्कृतिक श्रेष्ठता के शिखर पर पहुंचा रहे हैं। ऐसे ही एक क्लब द्वारा परिचालित दुर्गापूजा की स्वर्ण जयंती मनाई जा रही है एवं इनका बजट पन्द्रह लाख रुपये हैं। इसीलिए सड़क पर गाड़ियों को रोककर इक्यावन रुपये की जा रही है। इस कार्य के लिए स्थानीय नेताओं का इन्हे संरक्षण प्राप्त रहता है जिसका लाभ उठाकर बंग्ला संस्कृति को तराशने का कार्य संपन्न होता है। पांच दिन का पूजा नामक त्यौहार को पन्द्रह लाख रुपये का चढ़ावा अतः हमारे सारथी ने हमलोगों से आग्रह किया ये जो मांग रहे हैं भुगतान कर दीजिए नही तो छुटकारा नहीं मिलेगी। एक गाड़ी के रुकने से एक के बाद एक वाहनों की कतार लग चुकी है, कोई भी स्थानीय लड़कों से उलझना नही चाहता है। हम सभी एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। एक-एक सांस भारी लगने लगा। मन विक्षुब्ध हो उठा यह कैसा कानूनी दादागिरी है, कैसे हैं देश के लोग जो त्यौहार मनाने के लिए गुंडागर्दी को बुनियाद बनाते हैं और उत्सव का पालन करते हैं। ये जो पन्द्रह लाख खर्च होंगे क्या उससे अस्पताल बनेगी या स्कूल – कॉलेज खुलेंगे। नहीं। तो, यह जनता से क्यों वसूला जाय और जनता भी अपमानित – प्रताड़ित होकर भी इन क्लबों के द्वारा आयोजित उत्सव को देखने के लिए तड़क – भड़क सज –धज कर आनन्द उपभोग के लिए शामिल होते हैं सिर्फ पांच दिन – सिर्फ पांच दिन। विजय दशमी के दिन प्रतिमा विसर्जन और पन्द्रह लाख की जलांजली। मानना पड़ेगा देश के चेतना सम्पन्न नागरिकों को, भोग की लिप्सा ने इन्हें कहां पहुंचा दिया है। अपनी ऐन्द्रिक भोग धर्म का दुरुपयोग करके पुरी करते हैं। मस्ती एवं आनन्द मनाना ही मूल उद्देश्य है किसी भी देव-देवी पूजन का सहारा लेना आधुनिक शिक्षितों को पता नही कैसे शोभा देता है और तो और अभी एक नया विचारधारा की व्यार बह रही है धर्मनिरपेक्षता। जिसका अर्थ है संवैधानिक रुप से सभी धर्म समान है ईश वन्दना की स्वाधीनता। परन्तु इस देश के देवी-देवताओं के प्रति अपमानजनित या व्यंग्य करने को स्वाधीनता का अधिकार मान कुछ उच्च शिक्षित कहलाने वाले लोग इसे धर्मनिरपेक्षता का चोला पहना देते हैं जिससे सामाजिक एकता बनने के वजाय कई श्रेणियों विभक्त हो रही है और मुट्ठी भर लोग क्षमता प्रयोग करने के लिए वोट शक्ति अपने जेब में डाले घूमते फिरते हैं। जनसाधारण भी इन्ही की हां में हां मिलाते है मात्र अपनी स्वार्थ पूर्ति के हेतु। धर्म के नाम पर कूठाराघात करने वाले हिन्दू ही होते हैं कोई गैर नहीं क्योंकि ये अपने संस्कार तथा धर्म की निन्दा करना साहस एवं गर्व का विषय समझते हैं पर वैसा ही साहस इस्लाम या ईसाई का विरोध करने का साहस सपने में भी नहीं कर पाते हैं। कोई भी धर्म बुराई करना नही सिखाता है उसे तो मनुष्य ही त्रुटियों से भर देता है और इन्हीं त्रुटियों को दिखाने का हिम्मत इस्लाम या ईसाई में हिन्दूओ के पास नहीं होता है कारण  स्वयं के जान जाने का डर होता है। बस यही पर धर्म निरपेक्षता का नारा बुलन्द करने वाले कही से भी खरे नहीं उतरते हैं। अपने देश में माता-पिता के चरण स्पर्श करना आधुनिक समाज में पिछड़ा माना जाने लगा है, टाटा – बाटा – बाय – बाय कहना उदारता, शिक्षित का प्रतिक माना जाता है।

                 खैर छोड़ो इन बातों को अकेला चना भांड़ नहीं फोड़ सकता है और मैं भी इक्यावन रुपया चन्दा लेने वाली ज्यादती से विक्षुब्ध हो गया । कुछ देर तक राजहंस के अन्दर बैठे बैठे उस्स – कुस्स करते रहे कि अचानक पता नही क्या हुआ सारी खड़ी वाहने चिल्लपों मचाते हुए आगे सरपट भागने लगे। समझ नहीं आया कि आखिर माजरा क्या है आधा घंटे बाद हमलोग अपनी मंजिल पर पहुंचे अर्थात रामकृष्ण परमहंस की जन्मस्थली। यह गांव आज शोर-शराबे से परिपूर्ण और ख्याति - प्राप्त पर्यटन को केन्द्र बन चुका है। सड़क के दोनों किनारों को देखकर नही लगता है कि यह स्थल गांव है कारण सड़क के दोनों ओर आकर्षक यूरोपियन शैली में बने मकान, दुकानें, शोरूम, होटल, रेस्टोरेंट घूमने आए पर्यटकों को लुभाने तथा स्वागत करने की सारी व्यवस्था कर रखा है मतलब जो भी यहां घूमने आये वह यही का होकर निश्चित अवधि तक ठहर जाए। कोई शिकायत न रहे। मिठईयों, चाय – कॉफी की खुशबू आपकी नासिका में कोई शून्य नहीं रहने देगी। पान की दुकान पर सिगरेट और गुटखों के पैकेटें अनोखी अदा में झूलती मिली एवं गाने के कैसेटों की दुकानों पर पता नही किस भाषा में ढक – ढक और शायद गीटारों के टुंग – टिंग की ध्वनि कान के पर्दे फाड़ने के लिए सारी तैयारी कर रखी थी जिससे सभी लोग सुन –सुन कर लटकते –मटकते रहे। हां, एक ऐसी विशेषता हमारे मुंह पर थप्पड़ सा लगा जो यदि वर्णन न करूं तो अन्याय होगा। यहां की कुछ महिलाओं एवं बच्चों को एक टका – दुई टका दाओ ना कहकर पर्यटकों को घेर लेते हैं। इनके कपड़े एकदम गंदे, फटे – पैबन्द लगे, सर के बाल अस्त-व्यस्त जिसके अन्दर से जूओं को ढूंढने में उलझी हुई उंगलियां, चेहरे पर भूख तथा याचना की मिश्रित स्याह दिखाई दे रही थी। लोग इन्हें दूर-दूर कर रहे थे, घुड़कियां लगा रहे थे फिर भी ये लोग लाज-शर्म, स्वभिमान पीकर घूमने आये हुए लोगों से चिपक जा रहे थे। शायद अट्टहास करके कहना चाह रहे थे कि वाह रे मेरे देशवासी , मैं भी इसी देश का और तुम्हारा सहोदर हूं फिर मुझमें- तुझमें इतना भेद क्यों तुमने शिक्षा-दौलत पर कुंडली मार रखी है। क्या मैं नहीं देख रहा हूं कि तुम लोगों ने सारा कल-कारखाना, शिक्षण-संस्थानों, अस्पतालों पर अपना झण्डा गाड़कर अहंकार में डूबे अविचारी बने फिर रहे हो और हम पर उपहास करते हो। मैं निकम्मा नहीं हूं, मन्द बुद्धी नहीं हूं। बस तुम लोगों ने हमें अवसर नहीं दिया ताकि हम तुम्हें अपनी प्रतिभा दिखा सके, नहीं तो दिखाता कि आधुनिक भारत का निर्माता हमारे अन्दर भी छिपा है। आज तुम्हारे शरीर से तेल चू रहा है और हमारा पेट-पीठ एक-दूसरे सट गया है। कही तुम्हारे कपड़े गंदे न हो जाय, कोई संक्रामक बीमारी न हो जाये इसलिए तुम हमें दुत्कारते हो बेईमान कही के! हमारी कृषि अच्छी नहीं हे उपर से कृषिकार्य भी महंगी हो चुकी है अन्यथा हमें क्या शौक चढ़ा है जो तुम्हारे सामने हाथ पसारते? थोड़ा सा कगजी डिग्री क्या ले लिया कि स्वयं को भारत मान बैठे हो, समानता-समाजवाद का स्लोगान दे रहे हो। तुम्हारा यह नारा झूठा है, मन में तम की बत्ती जलाकर विश्व को में प्रकाश फैलाना चाहते हो। याद रखो तुम कभी भी शांत नही रहोगे, भागते फिरोगे। पता है किसके भय से? हमारे प्रति किया गया अविचार सदैव तुम्हें आतंकित बनाए रखेगा।

उपरोक्त भावनाओं के थप्पड़ ने मेरे मन-मस्तिष्क को बिजली का झटका दे रहा था। अपने उपर ग्लानि का बोझ बढ़ता सा अनुभव होने लगा,मन अशांत हो उठा था। ऐसे ही याचकों के दल से हमलोग भी घेर लिए गए। सेन दा इन्हें पांच रुपया दिया। देखादेखी मैं भी पांच रुपया देने जा रहा था कि गोपाल दा ने मना किया कहा कि – ये लोग मेहनत से जी चुराते है तथा भीख मांगने पेट से उर्द्धव आय हो जाती है, सो ये लोग काम करना छोड़ भीख मांगते हैं। इन लोगों ने ही अपने देश की छवि खराब कर दी है।

हम सबने पहले चाय-बिस्कूट की चुस्की ले वाहन में बैठने की थकावट मिटाई। मैं एक छोटी बिस्कूट की पैकेट ली जिसमे से मात्र तीन ही खाया और बाकि को जेब के हवाले कर दिया एवं मुख्य कार्य था भोजन – आराम की व्यवस्था करना। इधर पारा भी धिरे-धिरे उपर चढ़ रहा था सो धूप की उमस से आंखे स्वतः सिकुड़ गई । यद्यपि यहाँ बड़े-बड़े वृक्षों की भरमार थी। लेकिन जब पेड़ ही घायल हो तो दूसरे जीवों की रक्षा खाक करेगा। ग्यारह न. की बस से हमलोग एक बड़े सुन्दर लोहे को गेट को पार कर गए। सामने ही कार्यालय, जहां पर्यटकों का आना-जाना तो लगा देखा पर सभी शब्द-दूषण नियंत्रण कर रहे थे। कार्यालय एकदम फर्स्टक्लास साफ-सुथरा, सजा-सजाया। चारों तरफ सीजन फूल के पौधे अपने नन्हे-मुन्हे को प्रजापति और मधुमक्खियों के साथ खेलने को छोड़ दिया था। उनके कहकहे और चंचलता एक अजीब शांति प्रदान कर रहा था। सेन दा के साथ हम तीन जन कार्यालय के अन्दर प्रवेश किये तथा सामने टेबूल पर गेरुआ वस्त्र धारी एक मध्य वयस्क सर मुंडित व्यक्ति से अपना प्रयोजन बताया साथ ही साथ सेन दा ने एक परिचित मित्र का सिफारिश पत्र दिखाया जिसे देख सन्यासी महोदय ने दो सौ दस रुपयों का भुगतान करने को कहा। भुगतान करने के पश्चात रसीद हस्तगत हुई और हम सभी बाहर निकल आए तथा हमारा इस स्थल को घूम -घूम कर देखना प्रारंभ किया। अन्दर की सजावट को भरसक प्रयास किया गया है ताकि सब कुछ प्राकृतिक लगे। स्वामी राकृष्ण परमहंस का जन्मस्थली(गृह), पूजाघरादि ज्यों का त्यों अर्थात लगभग दो सौ वर्ष पुराना। ऐसा प्रबंध किया गया है स्वामी रामकृष्ण द्वारा अपने जीवनकाल में व्यवहार किये गये वस्तुएं भविष्य में भी सुरक्षित रहे ताकि इन्हे देखकर जनमानस के मन में गर्व की अनुभूति हो और यहां से घर वापस जाकर पाड़ा, रॉकों तथा कुकुरमुत्ते के छत्ते की भेंति फैलनेवाले क्लबों में नमक-मसाला मिलाकर बखान करे और स्वयं को महान  बनाने का प्रयास करं। कहेंगे “यदि मैं कारपुकुर नहीं जाता तो मेरा जीवन बेकार ही रहता ठाकुर के जन्मस्थली का दर्शन कर बड़ी शांति मिली”। कितनी हास्यास्पद लगती है शांति मिलना, आपका शांति आपके मन के स्वार्थ को दर्शाता है इससे किसी अन्य का भला होता तो आपको जो शांति मिली उचित कहलाता पर कभी ठाकुर के जीवन आदर्शों को आपने अपनाया ही नही। आपके विचार में मात्र प्रदर्शन प्रियता ही दिखाई देती है। इस पूरे परिसर में रंगबहारी फूलों को घेरे में घेरकर रखा गया है तथा सभी स्थलों पर एक-एक पट्टी टंगी हुई थी जिस पर बंगला में लिखा देखा “गाछे हात दिबेन ना” अर्थात इन्हें हाथ न लगाएं। फिर भी लुका-चोरी खेलने के अभ्यस्त मनुष्य लगाए गए पेड़ों के पत्ते या फूल तोड़ लेते हैं क्योंकि आधुनिक इण्डियन भोगवाद के मार्ग पर चलने के लिए सृजन के तरफ सांस लेना ही नहीं बल्कि विध्वंस को मानवाधिकार कहने से आघाते नहीं हैं। आश्चर्य की बात तो मैंने यहां देखी वह थी जो लोग हिन्दू धर्म की त्रुटियां गिनते थकते नहीं, किसी स्कूल-कॉलेज के भवन निर्माण के सहायतार्थ दस रुपये चन्दा देने में खरी-खोटी सुनाते हैं वो लोग रामकृष्ण मिशन के महाराजों (गेरुआ वस्त्रधारी सन्यासी) के चरणों पर माथा ठोकते नजर आ रहे हैं। और नारियों को तो सौ कदम बढ़कर अपने भरों पर चन्दा मांगने वालों को देखकर ही त्यौरियां चढ़ा शब्द वाणों की वर्षा करने में अपनी शान समझती है जबकि यही शक्ति स्वरुपा कलाई से सोने की चुड़ियां खोल सर पर पल्लू डाल महारजों के चरणों पर सस्टांग दणडवत लेकिन घर पर श्वसुर,भैसुर या अपरिचितों के सामने हिन्दू सामाजिक संस्कार का मजाक उड़ाती है तथा सर पर पल्लू डालना “आधूनिक शिक्षित नारियों का अपमान” समझती है। अब इस दोहरेपन को क्या कहा जाय! एक तरह से यबं कहा जा सकता है कि दूसरों की आलोचना तो करो पर स्वयं जब करो तो अपने युक्ति एवं तर्क के द्वारा समय का परिवर्तन साबित कर दो।

कई लोग ऐसे होते हैं जो यहां आकर ऐसा ज्ञान और रामकृष्ण मिशन का गुणगान करते हैं जो जरा ज्यादती कर बैठते हैं। ऐसे महानुभावों मे हमारे दल के सदस्य भी हैं। कुछ देर पहले मुझे किसी को पांच रुपए देते समय निकम्मे लोगों को सह देना कहा। वो दोनों बौदी को देखकर मैं भ्रमित हो गया। युवा महाराजों का आध्यात्म-उपदेश सुनकर चरणों पर माथा टेका और पर्स से सौ रुपए के कई नोट निकाल कर भेंट चढ़ाया। मैं अपने को रोक न सका एवं कौतुहलवश पुछ बैठा – अच्छा गोपालदा, इतने सारे रुपए का क्या होगा, इन पैसों से महाराजों की पूजा क्यों होती है इस पर गोपालदा अपने शरीर के सफेद वस्त्रावरण के साथ ताल मिलाते एकदम गंभीर। बस हल्की मुस्कराहट, परन्तु दूसरी बौदी बोली – ठाकुरपो ऐसी बात नही कहना चाहिए। तुम नही जानते हो मानव सेवार्थ अनगिनत परियोजनायें नियंत्रित हो रही है – अस्पताल, स्कूल, टेक्निकल ट्रेनिंग सेन्टर, स्वनिर्भर प्रकल्प आदि। मेरे गले उनकी बात नही उतरी। बुड़ोदा ने भी मुझे समझाने के लिए कम से कम हजार शब्द खर्च किए होंगे और बड़ा सा प्रमाण पत्र ही दे डाला – मिशन माने आर.के.मिशन एक आदर्श संस्था है। लेकिन इसका जो जवाब मुझे बम-विस्फोट की तरह मिलनेवाला था उसका वर्णन थोड़ी देर बाद करुंगा। परिसर के भीतरी भागों का अवलोकन करते- करते एक बड़ा सा आम का पेड़ के पास पहुंचा यहां भी माथा टेकनेवाला दृश्य। इस पेड़ को रामकृष्ण ने अपने हाथों लगाया था जिसके तना और डाल को देखकर बुढ़ापन का अंदाज लगाया जा सकता है। इस पेड़ की हरियाली देखकर शायद दूसरे पेड़ों को ईर्ष्या हो रही होगी क्योंकि रास्ते के किनारे उगे – बढ़े पुराने पेड़ों के तने पर आघात के निशानों से पूर्ण जीर्ण-शीर्ण काया दिख रही थी जबकि संरक्षित ठाकुर द्वारा लगाये पेड़ की काया से तेल चू रही है उपर से इसके स्पर्श व छाया तले बैठा व्यक्ति स्वयं को धन्य मानता है वही रास्ते के किनारे वाले पेड़ अवहेलित एवं पेड़ के तने  के आस-पास मानव-मुत्र विसर्जन की बहार। इन पेड़ों के छाया तले बैठना तो दूर नाक बन्द कर सांस लेने कि प्रतियोगिता हो रही है। मनुष्य भी अद्भुत प्राणी है जो किसी को सर पर बिठाता है तो किसी को पैरों तले रौंद देता है। पैर से सर पर बिठाने की मापकाठी उसका हित है जैसे ही हित साधन की पूर्ति नहीं हुई हजारों त्रुटियां दिखाई देने लगती है

परिसर से बाहर निकल हमलोग सड़क पर आ गए वही मन लुभावन कारुकार्य से सजा एक तालाब देखा। तालाब का किनारा सिमेंटेड घाटों को सुन्दरता की मूर्ति में बदल दिया गया था। उसके चारों ओर घूमने व बैठ कर गप्पे मारने की व्यवस्था थी एवं बैठनेवाले आसनों को ग्रहण कर नयनाभिराम छवि का अवलोकन कर रहे थे। पेड़-पौधों की हरियाली के साथ तालाब का जल एकाकार हो गर्मी से सिकुड़ी त्रस्त नेत्रों को ताजगी का अहसास करा रहा है। यहां से आगे बढ़े एक स्थल जिसे ठाकुर का पाठशाला कहा जा रहा था, नीचे बैठने की फर्श जहां-तहां मरम्मत व ढालू टिन का चाल उस समय के गांव का स्मरण करा रहा था। वहां से उस धोबिन के घर की ओर जिसे ठाकुर ने अपना धर्म मां माना था। यहां अब धोबन की पिढ़ियां रहती है। धोबन की मकान की दीवारे मिट्टी से निर्मित, छावनी फूस की। कुछ ही कदम की दूरी पर मां का मंदिर, छोटा सा घर पूजा स्थल के रुप में दर्शनार्थियों से सम्मान पा रहा है। मिट्टी से बना हुआ एक छोटा दरवाजा तथा सामने ही प्रणामी बक्सा रखा हुआ है। इसी स्थल पर ठाकुर मां की आराधना करते थे। यहां भी माथा टेकने का भूत और साथ ही अन्य कई स्थानों का भी दर्शन किया जिनको देखकर इतना तो समझ गया की यहां ग्राम्य वातावरण है, लेकिन यहां घूमने आये लोग अपने को धन्य समझ इतरा रहे थे पर स्थानीय जन भ्रमणार्थियों को आयाराम-गयाराम समझते हैं। किसी से कुछ पुछने पर काट-छाट उत्तर देते थे जिसमें विरक्तीउनके चेहरे पर दिखाई देता है तथा उत्तरदाता यदि किशोर या युवक हुए तब आपका उपहास उड़ाकर ही दम लेंगे। यह परिदृश्य कभी भी ग्राम्य वातावरण से मेल नहीं खाती है कारण गांवों में किसी अपरिचित को देखते ही घेरकर प्रश्नोत्तरी करते-करते आत्मियता का भाव जगा देते हैं। धिरे-धिरे सूर्य भगवान अपनी शक्ति प्रदर्शन में नरम रूख अपना लिया। हमलोगों ने भी वर्षा से लड़ने के अस्त्र अपने साथ रख लिया था ताकि गोवर्धन पर्वत को अंगुलि पर न सही सर पर तो धारण कर ही सकते थे। वैसे यह शस्त्र इन्द्रदेव के स्थान पर सूर्य को रोके रखने में सक्षम है। भोजन का समय हो चला था अतः बकर-बकर करते भोजनालय की ओर अग्रसर हुए। मैं जरा कम बक-बक करना पसंद करता इसलिए बाकि साथियों से दूरी बनी हुई थी। भोजनालय के प्रवेश द्वार से अभी थोड़ी दूरी पर था कि एक व-द्धा मेरे आमने-सामने आ खड़ी हुई। शरीर गंदी-मलीन धोती से अधा ढंका हुआ, सर के बाल एकदम पाट की सन, देह की चमड़ी झूली हुई थी । मुझसे बोली –“ बाबुजी दो रुपए दो ना”। मुझे लगा की बोली में अभीनय है पर देखा उसके दांत टाटा-बाय-बाय कर चुके हैं। एक क्षण के लिए उसे घुरा परन्तु क्या जानूं  उस चेहरे में अपनी जनजनी का चेहरा दिखा और मेरी आत्मा कांप उठी। मैंने अपने जेब में हाथ डाले तथा बची हुई बिस्कूट पैकेट व-द्धा के हाथ में ऱख दिया संग-संग सातवां आश्चर्य मेरे सामनेउपस्थित। हुआ यूं कि व-द्धा ने किसी को बुलाया –“ ओ हारु – बेने, ओ भूतो ” फौरन ही तीन लड़के पटे हुए हाफ पैंट पहने नंग-धड़ंग एकदम भूत की तरह सामने आ खड़े हुए। वृद्धा ने तीनों लड़कों को दो-दो बिस्कूट बांट कर दे दी एवं बाकी जो बचे उसने तीनों में जो बड़े थे उसके हाथ में देकर बोली – इसे रख दे, कल इस्कूल टीफीन के लिए रख ले। यह सब मैंने खड़ा रहकर देखा  मैं अपने को रोक न पाया और पॉकेट से दस रुपए का नोट निकाल वृद्धा के हाथ में देते हुए कहा –“ मासी मां, यह आप रख लो ” वह मेरा चेहरा कई पल तक देखी नेत्र छलछला उठा थे और कांपते दाहिना हाथ मेरे सर पर। मैं भी भावुक हो गया था पर प्रकट होने नही दिया। उस बड़े लड़के से मैंने ही कहा – “तुम अपनी ठाकुरमां से यह सब क्यों कराते हो?”  लड़का सहम गया और उसने सहमी आवाज में ही उत्तर दिया – मुझे कोई काम पर लेता ही नही है। घर में खाने की कमी-------- तुम्हारे बाबा क्या करते हैं मैंने पुछा। इस पर वृद्धा रुखे स्वर में बोली -  सारा कल-कारखाना को तुम शहर वाले हड़प जाते हो और गांव को संतानहीन बना दिये हो। हमारे बेटों को कम मजदूरी पर ऐसे लस्से में चिपका कर रखते हो कि वह न ते शहरी बन पाता है और न गांव का, तब हमारी ऐसी वृद्धा माताएं तुम सबके सामने हाथ पसारती है। सिर्फ इनके लिए(अपने नातियों की ओर ईंगित की)। उस वृद्धा के कहे गये शब्द मेरे मस्तिष्क को हथौड़े की भांति चोट किया। अतः मैंने वहाँ से हट जाना श्रेयस्कर समझा। ठीक है मासी मां, मैंने आपको दुःख पहुंचाया। क्षमा चाहता हूं।

ना रे बेटा। नैं तो मां हूं मां तो सबको क्षमा करती है। जानती हूं अन्य सभी तुम्हारी तरह पुछेंगे और दूर-दूर करने लगते हैं जैसे हम मानव न होकर घृणा की कोई वस्तु हैं भले ही यहां के महाराजों को नोटों की आरती चढ़ाएंगे।

वृद्धा ने बुझे स्वर में कहा। मेरे कदम पुनः एक बार रुक गए। थोड़ा सहज हो मैंने कहा - मासी मा ये नोट भी तो आप ही लोगों के कल्याण कार्य में व्यवहार होता होगा।

ना – ना। हमलोगों को लिए यहां इतना कल्याणकारी कार्य करते हैं कि हमलोगों ने भीख मांग कर जीने का शायद अभ्यास बना लिया है। वृद्धा ने अपनी स्थिति बता तीनों लड़कों को अपने में समेटते हुए आगे बढ़ गई। मैं भी वापस मेन गेट की तरफ। वृद्धा की बात मनोमस्तिष्क में उठापटक कर रही थी।मुझे लगा सच्चाई वास्तव में कठोर होता है और अंधेरे में डूब जाता है। कलकत्ता शहर से छः-सात घंटे की दूरी के समक्ष राजनैतिक नेता व मंत्रियों का समानता एवं आर्थिक खुशहाली का नारा एकदम खोखला लगा। उस वृद्ध स्त्री ने छछुन्दर के सर पर चमेली का तेल मुझे दिखा दिया जो एक-डेढ़ घंटे पूर्व गोपाल दा – बुड़ो दा द्वारा दिया गया मिशन के सेवा कार्य का विवरण मेरे आंखों के सामने उभर आया।

अन्दर प्रवेश करने पर थोड़ा इधर-उधर चहल कदमी करते भोजन कक्ष की ओर अग्रसर हो रहे थे। निर्मित भवनों की दीवारों पर ठाकुर द्वारा कहे गये शब्दों जैसे – जतो मत ततो पथ, जीव सेवा नारायण सेवा आदि तथा उनके जीवन से संबंधित चित्रों का अंकन घूमने आनेवालों के जीवन को रामकृष्णमय बना रखा था। प्रायः सभी अन्य विषयों की चर्चा न कर ठाकुर-ठाकुर की रट लगा रहे थे। यह सब देख मुझे आडम्बर सा लगा क्योंकि उस समय वृद्धा के वाक्यों में कुछ और दिख रहा था। लोगों के व्यवहारों में केवल अभिनय ही अभिनय होता है जैसे चलचित्र के पर्दे पर अभिनेता अपने देश समाज, सभ्यता-संस्कृति के लिए प्राणों को उत्सर्ग करता नजर आता है। परंतु इन्हीं अभिनेताओं का साक्षात्कार जब टी. वी. पर देखता हूं तब इनके मुखरविन्द से अंग्रेजीयत की वर्षा होती है पर हिन्दी का एक भी शब्द बोलने में शर्म आ रही है। अब इन्हे क्या कहा जाय जो रोटी खाते हैं हिन्दी का पर व्यवहार एवं पहनावे में किसी विदेशी का दर्शन देते हैं। एक पल के लिए भी नहीं सोचते हैं कि ये युवाओम के आदर्श बन चुके हैं और इन आदर्शों का अनुकरण कर रहे हैं एवं देश-समाज, सभ्यता-संस्कृति का उपहास कर रहे हैं। विदेशी संस्कारों का प्रचार कर रहे हैं। मेरा सोच यूं ही नही आया , जो मैंने दैखा उसी के आधार पर व्यक्त कर रहा हूं। भोजन कक्ष एक बड़ा सा कमरा जहाँ एक साथ पांच सौ से भी ज्यादा लोग भोजन करेंगे ऐसी व्यवस्था थी। पुर्ण स्वच्छ। अधिक उम्र एवं प्रतिबंधियों के लिए अलग व्यवस्था में कुर्सी-टेबुल। कक्ष के अन्दर प्रवेश करने के पहले द्वार के सामने जूते-चप्पलों का अस्त-व्यस्त अम्बार,लगभग दस फीट की दूरी पर प्रक्षालन का केन्द्र जिसके सामने हस्त प्रक्षालन के लिए आपा-धापी। यह देख हंसी भी आती है कही भोज्य सामग्री कोई और हस्तगत न कर ले या अपनी बहादुरी दिखाने की होड़ लगी हो – देखो, मैं सबसे पहले...........यह सबसे पहले की भावना एक अच्छी व्यवस्था को अव्यवस्था में बदलने के लिए काफी है यानी कि शक्तिशाली अस्त्र। हस्त प्रक्षालन पश्चात जूतों को अलगा स्थान पर रखकर हम लोग अन्दर प्रवेश किया। उफ्फ कदम नही रख पा रहा था कारण दोपहर ने सबको दोपहरिया कर दिया था। अब जो भी हो फैशन रैम्प पर चलने का प्रदर्शन कर बिछाये गये आसनों पर स्थान ग्रहण किया। पहले ही बता चुका हूं कि कमरा काफी बड़ा एवं उँचा होने के कारण भोजनार्थियों की फुसफुसाहटें भी प्रतिध्वनित हो रही थी जो कर्ण गह्वर को असहनीय लगती है और भई मैं तो मन ही मन सोच रहा था कि खाद्य सामग्री शिघ्र मिल जाये तो बड़ी शांती मिलेगी। एक साथ सहभोज करने के बहाने फर्श पर बैठना भी एक मुसीबत क्योंकी घूमने के नाम पर ज्ञानार्जन कम स्व-प्रदर्शन अधिक हो रहा है जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण मेरे सामने है। लोग(स्त्री-पुरुष) तड़क-भड़क वाला पहनावा, सजने-धजने में कोई कमी नहीं। सर के बालों में कलफ् लगा उम्र छुपाने का प्रयास। बैठते वक्त कपड़ों में सिलवटें न पड़े इसका ध्यान जिससे असहजता, एक-दूसरे का पर्यवेक्षण एवं अपनी –अपनी दल में दूसरे के पहनावे पर हल्की फिशिर-फिसिर तथा दूसरे को उपहास का पात्र बना हंसी-ठिठोली की बहार छा गई । सबके नयन चंचल, पलकों का मिटिर-मिटिर करना, आंखों की पुतलियां नाच रही है। रह-रह कर सबके नेत्र प्रवेश-द्वार की तरफ उठते और फिर अन्य दिशा में। औरों की तरह मेरा नेत्र भी इधर-उधर देखते-देखते दिवाल पर एक मंत्र को पढ़ने का प्रयास कर रहा था जो संस्कृत में लिखा हुआ था। यह देखकर सेन दा से रहा नही गया और उत्साहित या हतोत्साहित करने के लिए बोलना शुरु कर दिया – वाह – वाह क्या उच्चारण है तुम तो पुरोहितों से भी स्पष्ट व सुर में पढ़ रहे हो । इस पर प्रत्युत्तर में मैंने कहा – सेन दा, यह श्लोक संस्कृत का है और यही वर्ण हिन्दी का भी है सो उच्चारण में असुविधा नहीं होती है। दाल-भात में मूसरचन्द बन मेरे बगल का एक व्यक्ति बंगाली पुरोहित था उसे शायद बंगला भाषा का अपमान लगा और आवेश में टूट पड़ा मुझ पर – आप गलत पढ़े हैं, संस्कृत के वर्णों का उच्चारण बंगला में सही है। हमारे सेन दा को इस टपके हुए खजूर पर बड़ा गुस्सा आया और दोनों में तर्क शुरु। अन्त में हम दोनों ही श्लोक पढ़ेंगे किसी जानकार के समक्ष पर तर्क थमा। दो अपरिचित महोदय हमारे बीच विचारक बन गए,पहले वे पढ़े बाद में मेरी बारी आई और जीत एवं प्रशंसा मेरे हाथ लगी। कारण दीवार पर लिखा भोजन मंत्र मुझे याद था बस अंतर इतना ही था इसे रामकृष्ण मिशन अनुरूप लिखा गया था। अचानक ह्विसल बज उठी एवं चारो ओर निरवता छा गई। आश्चर्य के साथ ह्विसल का कारण जानने के लिए सामने देखा, एक गेरुआ वस्त्रधारी महाराज के साथ यहां के कार्यकर्तागण भोजन मंत्र का गायन कर रहे हैं तथा सभी इस गायन में आधी-अधूरी सबने हिस्सा लिया। चूंकि सेन दा के साथ टपके खजूर के तर्क के समय ही भोजन सामग्री परोसना शुरु हो चुका था सो जैसे ही मंत्र गायन समाप्त भूखों के हाथों ने दनादन अपना करामात दिखाने लगे और उसका सहयोगी बना जाँत-जीभ। मानो या न माने पर सहभोज में जो समरसता देखी वो तो कल्पना से परे था क्योंकि यहां किसी की जात नही पूछी गई। वास्तव में यह सोच हर भारतीय में आ जाय तो उन लोगों को थप्पड़ लग जाएंगी जो भारतवासियों को जॉत-पात मे बटा हुए कहते सिना फुलाते हैं। भोजन करनेवालों को देख रोबोटिक मनुष्य का चेहरा आंखों के सामने घूमने लगा जब हाथों की अंगुलियों को पत्तलों घुमते, ग्रास को मुंह में धकेलने हेतु पटापट उपर-निचे हो रहा था, किसी की उंगलियां जीभ के साथ प्रेमालाप कर रही है और मुंह तो चपर-चपर कर रवीन्द्र संगीत छेड़ दिया हो,पुरा शरीर गाने के ताल में दोलायमान जैसे प्राथमिक श्रेणी का छात्र हो अपना पाठ याद कर रहा है। एक बार फिर ह्विसल बजी इसका अर्थ जिनका भोजन समाप्त वे पंक्ति से उठ सकते हैं। अब क्या कहूं बाहर निकलने की होड़ मच गई जूठे हाथ को धोने के लिए धक्का-मुक्की, कुछ लोग थोड़ी दूरी पर नल खाली होने की प्रतिक्षारत तो कुछ शायद ज्यादा खा लिए थे और पेट भारी हो गया हो – भेउ-भेउ डकार लेते सुस्ता रहे थे हालांकि नलो की व्यवस्था उपयुक्त थी पर लोगों के विचारों में कुत्ते की दूम। सुव्यवस्था भी कूव्यवस्था बन कर मुंह चिढ़ा रही थी।

किसी तरह से हमलोगों ने भी मैदान में बाजी जीता और भोजन का गुणगान करते रहे – आह क्या रंधन है क्या स्वादिष्ट सुक्तो थी खाकर परम तृप्ति हुई आदि-आदि शब्दों का भण्डार जमा किया और एक कदम-दो कदम मापते हमारी राजहंस जहां थी वहां पहुंचे जो रास्ते के एक किनारे कड़ी थी व मिष्टान भण्डारों मिहिदाना खरीदा। राजहंस ने अपने डैनों को गति प्रदान किया और हमें विश्राम कक्ष तक पहुंचा दिया। यह विश्राम कक्ष भी मिशन का ही विशेष अतिथि भवन है सारे सूख-सुविधाओं से सज्जीत जो प्राकृतिक नहीं मानव के श्रेष्ठ गुणों का अनुपम प्रयास है जो मन में प्राकृतिक सुन्दरता का अहसास करा देती है। विश्रामालय में अनगिनत सफेदी किये कमरे वैद्युतिक प्रकाश, हवा से सजी सुन्दर दुल्हन की भांति अतिथियों के स्वागत में पलक पांवड़े बिछाए तैयार है। हां एक विशेषता अवश्य थी मन को शांति या उदासी प्रदान करनेवाली सफेदी का शासन चारो और विस्तृत यहां तक की विछावन-मच्छरदानी तक सब सादा। प्रत्येक कमरा सौर विद्युत जिसे मैंने केवल पुस्तकों में ही पढ़ा था पर आज इसको मैंने देखा और उस वैज्ञानिक को असंख्य धन्यवाद दिया जिसने मानव जॉति को उँचाई की चोटी पर पहुंचाया। बाहरी वातावरण मे अपरिचित पेड़ों-पौधों के झुंड देखे जिनकी नियमित कटाई-छंटाई कर सुन्दर-आकर्षक बनाया गया है और यहां की प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर लगा कि हमलोग स्वदेश में न रहकर किसी विदेशी स्थल का पर्यटन कर रहे हैं। इतनी सारी प्रबन्ध के लिए प्रचुर रुपये की आवश्यकता होती है और ये रुपये पूर्ति होती है प्रणामी में गिए गये राशि से। चलो धन का सदुपयोग कम से कम विदेशियों के द्वारा भारत वन्दना के लिए लगाया गया है इसके लिए मैं गर्वित हूं। यहां घूमने आने वालों में विदेशियों की संख्या अधिक है। यहां के बगीचे रंग-बिरंगे फूल हरे,पीले,लाल रंग के पत्ते सबों का मन मोह लेने के लिए काफी है और इन्हीं वनस्पतियों के झुरमुटों में ताड़ गाछ की तरह दिखने वाले पेड़ों की खंभों से लटकती हुई सोलर प्लेटलगे हे थे एवं इन्हीं से जुड़े हुए मोटे-मोटे झूलते तार लताओं का अहसास करा रहे थे, वह भी हरा न होकर रजताभ। दोपहर की निद्रा भी बड़ी अद्भुत होती है यदि आप अकेले हो जब तो निद्रा की रानी आपको अपने आगोश में ले लेगी पर यदि आपकी संख्या अधिक है तो बकर-बकर की राजकुमारी आपके उपर डोरे डाले रहेगी और दोपहरिया को प्रसन्न रखेगी।

        अपरान्ह साढ़े तीन का समय हो चला है और विश्रामागार से विदा लेने का समय हो चुका था। यहां से हमारी राजहंस आज की अंतिम पड़ाव माँ शारदा अर्थात राकृष्ण परमहंस की अर्द्धनारीश्वर की जन्मभूमि या मायेर बाड़ी की ओर लेकर डैनों को गति प्रदान की। जिस सड़क से हम आगे बढ़ रहे थे उसके पास गाँव बोलकर शायद दस घर होंगे वह भी एक – दूसरे से काफी दूर। दोनों ओग हरे-हरे रंग की चादर नील गगन ले मिलने को आतुर। सर्र-सर्र-सर्राती हुई वाहन के अन्दर बैठ धरती-गगन के मिलन को निहारना बड़ा गी कठिन कार्य था फिर भी उसी में अपने को व्यस्त रखा था। वैसे नीलाम्बर दूर से तो नीला दिखाई दे रहा था पर जैसे ही उसके निकट पहुंचा मैं ही उसे पीछे की छोड़ देता। अरे भाई, आँख-मिचौली में तो साथी खिलाड़ी पकड़ लिया जाता है पर ये सफेद मेघ बड़े धूर्त होते हैं आपके हाथ लगने से रहे। मार्तण्ड की प्रखरता में कमी नहीं आई थी। सारे साथी कभी आँखें बन्द तो कभी पलकें फाड़-फाड़कर सामने-दाहिने-बाँए निहार रहे थे कहने का अर्थ है कि आँख –मिचौली मैं अकेले ही नही खेल रहा था। यदि कोई इमानदार था तो राजहंस व उसका सारथी जो अपने काम में व्यस्त। नरम-नरम हवाओं का झोंका हमारी धौंकनी में भरती जा रही थी उपर से शरत् – ऋतु का अग्निवर्षा हम सबको परेशान करने से चूकना नही चाहती थी और इस चाहत के आकर्षण में हमारे शरीर में आलस्य छाता जा रहा है। सबके नेत्र-द्वय भी हकला रहे थे। शेषमशेष हम जयरामवाटी पहुंचे। हमारी नैय़ा शरतकालिन नदी में डगमग-डगमग करती हुई किनारे अर्थात जयरामवाटी जा लगी। मां शारदा के बापेर बड़ी में प्रवेश किया जहां देखने को मिली मां का जन्मस्थली, पूजास्थली एवं उनके जीवन से जुड़ी और भी कई घर। सभी घरों य़थावत स्थिती में संजोये रखने का प्रयास अविराम चल रही है। एक ऐसा प्रयास जो एक ग्रामीण परिवेश को फैले हुए कंक्रिटों के जंगल में कौ कौतुहल का विषय बना डालेगा। आज की दुनिया में सहजीवन का चोला उतारकर मानव कंक्रिटों के कोटरों में अपने को समेट लिया है मानव जीवन संवेदना हीन बनकर यंत्रों के साथ जीने का प्रयास कर रहा है। पृथ्वी का श्रेष्ठ अपने वास्तविक वातावरण से चाक्षुस न होकर वह तो कम्प्यूटर के मॉनिटर पर केवल जैवमंडल का दर्शन कर रहा है और एक दिन कहेगा कि आज से पाँच सौ वर्ष पूर्व यहां गांव नामक स्थान है जहां मानव मानवों का वास था। जयरामवाटी में भी कामारपुकुर की ही भांति श्रद्धालुओं के द्वार डाली चढ़ाना, माथा टेकना और प्रणामी बक्स में दान की राशि डालने की होड़ देखी परंतु आपाधापी न था। यहां आनेवाले श्रद्धालुगण प्रायः शिक्षित जो हिन्दुओं के आचरणों को कूसंस्कार कहने से अघाते नहीं पर यहां आ माथा टेककर आँखे बन्द कर मनोकामना पूर्ण करने की कामना करते नजर आते हैं। ऐसा लग रहा है जैसे अपनी स्वार्थ पूर्ति हेतु किसी भी आराध्य देव को घूस देने की होड़ लगा रखी है। यह दोमुंहापन विश्व का सबसे बड़ा आश्चर्य जो एक तरफ पुरातन पोंगापंथ का खण्डन कर शिक्षित व वैचारिक होने का दंभ भरो और दूसरी ओर लकीर का फकीर। इन दृश्यों को देखकर लगता है मनुष्य बेईमानी की राह पर चलना नहीं छोड़ेगा। मेरे भाई, मैं कहना चाहता हूं कि जब आप ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हैं तो उनके दरवाजे पर जाकर भिक्षा क्यों मांग रहे है.।

मां शारदा के पैतृक भवन की सजावट बी मनमोहक और सुन्दर है। मंदिर की बजती घंटियां, विवाहित महिलाओं की उलु-ध्वनि तथा जलते हुए धुप-धूने की गंध वातावरण को आध्यात्मय बना रखा है। इनके बीच नारियों का सर पर आँचल रख दण्डवत होना एवं वज्रासन में झुककर माथा टेकना भी हिन्दूओं के संस्कार में समानता की शिक्षा देता है। धनी-गरीब, ब्राह्मण, वैश्य, शुद्र का कोई भेद नही है। इसे देख मुझे प्रसन्नता हुई कि देश के पढ़े-लिखे डीग्रीधारियों-बुद्धिजीवियों का दल समरसता पर चितन-मनन करते हैं अपने संस्कारों के उपर उंगलियाँ उठाकर लेकिन उनके तर्क इन महिलाओं के दैनिक अभ्यास के आगे खोखला दिखता है क्योंकि चिन्तन-मनन करनेवाले सामाजीक संस्कारों के एक पक्ष को देखता है और यह समय को साथ मजाक तथा राष्ट्रीय एकता को मिटाकर वाह्य संस्कारों के लिए भूमि तैयार कर रही है यानी कि उदारता का यह अर्थ नही होता है देशी संस्कारों को समूल नाश कर दो। जयरामवाटी तथा कामारपुकुर दोनो स्थानों पर जो समानता दिखता है शायद वही हमारी सामाजीक एकत्रीकरण एवं महिलाओं द्वारा ईश्वर या किसी भी देव-देवी के आगे माथा टेकना ही समरसता के जड़ को मजबूत करता है। मतलब निकला कि अपने समाज में फैली व्याधियों को पराजीत किया जा सकता है तो ऐसे ही देवालयों के माध्यम से। बस प्रयत्न होना चाहिए। हमारे प्राचीनकाल के मनिषियों का कहना  था कि किसी भी विचार को किसी के उपर थोपना नही है बल्कि नित नये-नये अनुसंधान और अनुसंधान। जब लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था तो ऋषियों के विचार इतने पवित्र पर आज णोटी-मोटी पोथी पढ़कर विश्वका इतिहास वाचन कर सकते हैं और विश्व बंधुत्व का नारा लगा सकते है पर वैज्ञनिक ढंग से सामाजीक समरसता की व्यवस्था को स्विकार नही करेंगे अर्थात बुद्धिजीवियों का दल आलोचनाओं मे हिस्सा लेकर बाल की खाल निकालेंगे और उससे उत्पन्न छिलनाओं का उपयोग पर ध्यान नही देते हैं फलतः आलोचनाओं से खोई लाभ नही होनेवाला है। अपने संस्कारों की त्रुटियां दिखाने को सब दिखाते हैं जिसका प्रभाव देश के नागरिकों में स्व – संस्कार के प्रति घृणा फैलता है तथा वाह्य संस्कारों की अच्छाइयों को दिखा उसके प्रति आकर्षण बढ़ाने का पथ प्रशस्त हो रहा है अर्थात स्वतंत्रता को परतंत्रता मे बदलना ही आलोचकों का मूल लक्ष्य बन चुका है। एक आलोचक की सार्थकता चल रही संस्कारों की त्रुटियों को दूर कर उसे संशोधन कर सामाजीक व्यवस्था को प्राण संजीवनी को उर्जा प्रदान करने में है और अपनी गौरव की प्राचीनता को सम्मान देने में है। परंतु सम्मान देने से आलोचक ही डरकर भागता है। यही डर आज देश और समाज में परनिर्भर बना रहा है जिससे देश की उन्नति में दीमक लग चुका है। उदाहरण के तौर पर आप ईसाईयत में सुधारवादियों ने ईसाई धर्म को कैथोलिक एवं प्रोटोस्टैन्ट में बांटा अवश्य पर अपने धर्म को खराब नही कहा। क्या ऐसे लोग उनके देश के प्रेरणा के स्रोत बने या नही । हमलोगो की तरह किसी वाह्य आदर्श का अनुकरण नही किया,सदैव अपने को गर्वित अनुभव करते हैं। अर्थात अपनी संस्कृति में राष्ट्रीय एकता का अमृत रस का भण्डार है उसे समय-समय पर मथना पड़ेगा । यदि ऐसा नही होता है तो बड़ों के चरण-स्पर्श के स्थान पर गूड मार्निंग कहनेवालों की संख्या सुरसा के मुंह की भांति फैल जायेगी और भारत नामक देश को निगल जायेगी।

हमारे भ्रमण का अंतिम क्षण आ चुका है। बाजू में ही एक सिंहेश्वरी मन्दिर था, वहां भी हमलोग पहुंचे । सिंह पर सवार देवी की मूर्ति थी एवं विशाल चबूतरा जिसके एक कोने में भींगी मिट्टी से भरा एक हौज से लोगों की भीड़ को चुटकी में मिट्टी लेकर मन्नतें मांगते देखा।

सूर्यदेव की महानता पश्चमि आकाश को लाल चुनर भेंट करता हुआ पाया। एक नववधु की तरह सहमी-सहमी अपरिचितों की हंसी-ठिठोली का पात्र बन ही चुकी थी। बड़ा अद्भुत दृश्य दिखता है नववधु लज्जा की गठरी बनती जाती है पर अपरिचितों का दल उसे छोड़ना ही नहीं चाहता है। मैं उत्सुकता से उस आकाश को देख रहा था जो लाल चूनर में सिमट कर सिकुड़ रही है और असहाय बन अपनी स्व को खोये जा रही है। इसी के साथ-साथ हमारी राजहंस ने अपने बांहों को पसारा तथा काली कालिन पर नागड़ा जूते की रप-रप की ध्वनि उत्पन्न करने लगा।

      


Rate this content
Log in