Yashwant Rathore

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एक जीवन ऐसा भी

एक जीवन ऐसा भी

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ये बैठवास गांव हैं। छोटा सा गांव। जोधपुर जिले के ओसियां तहसील में आता है। ओसियां से 11 किलोमीटर दूर स्थित है।प्राकर्तिक रूप से गांव बहुत सुंदर हैं, यहां ज्यादा हरियाली तो नही हैं पर पहाड़, रेगिस्तानी टीले इसकी खूबसूरती बड़ा देते हैं। दो एक तालाब हैं और बारिश का पानी टांको में इक्कठा कर सालभर के पानी की पूर्ति हो जाती हैं।हर जगह आखड़े, खेजड़ी, केर, कुम्भटिये के पेड़ पौधे इसकी सम्पदा हैं।

देर रात तक बच्चो का भाकळ (घर के बाहर की जगह) में खेल का शोर सुनाई देता है।2005 तक यहां न बिजली थी, न पानी की टंकियां। आसपास के गांवों में लाइट थी पर इनकी ढाणियों में बिजली न आई थी। इसके बहुत हद तक जिम्मेदार गांव के लोग ही थे। आलस्य इनकी रग रग में समाया था और ज्यादार लोग अनपढ़ भी थे।

आप इसे ठाकुरो या राजपूतों का गांव कह सकते हैं। दुनिया बहुत आगे बढ़ गयी थीं पर इनके लिए इनका गांव ही पूरी दुनिया थी।गांव में  इंद्र देव की कम ही कृपा थी। दो तीन साल में एक अकाल पड़ ही जाता था। गांव के केर, सांगरी, भटकनिया, तोरुं सब्जी के तौर पर काम आ जाते।

गोधन दूध दही की पूर्ति कर देते थे। जीवित रहने के लिए इतना काफी था।

रुपया देखनो को न था। किसी के पास एक रुपये का नोट भी होता था तो जलपे की थैली में संभाल के, बनियान की अंदर की जेब मे रखा जाता था। जब कोई नोट निकालता था तो सारे गांव का एकनिष्ठ ध्यान उस आदमी को देखने मे रहता। चार पांच फोल्ड किये हुवे जब वो थैली खुलती तो उस व्यक्ति का सम्मान राजा की तरह होता।

यहां पे 1942 में भूर सिंह जी पैदा हुवे, एक बहन और तीन भाइयों में तीसरे नंबर पे थे।

तीन साल की उम्र में पिताजी का देहांत हो गया था।भूर सिंह ने बड़ा कठिन बचपन देखा था। जब मां, पिताजी के देहांत के बाद मायके चली गयी, तो भूर सिंह और उनके बड़े भाई को मासी के घर छोड़ गई थी।

दो वक्त के खाने के लिए इतना गोबर और लकड़ियों से भरे कुंडे(तगारी) उठाने पड़ते की तीन साल और छह साल के बच्चो के सिर में टाकिया पड़ गयी थी और उन हिस्सों से बाल उड़ गए थे।

बहुत छोटी उम्र में भूर सिंह को रुपये पैसे की अहमियत पता लग गयी थी। पिताजी राजाजी की फौज में थे तो चार आने पेंशन मिलती थी उस वक़्त। अड़ी घड़ी में वो पैसे काम आ जाते थे।

गांव में कोई स्कूल उस वक़्त थी नही सो वो भी अनपढ़ ही रहे। 16 साल के थे तब ओसियां में भर्ती आयी थी। अपनी उम्र 18 बता वो बड़े भाई के साथ भारतीय थल सेना में भर्ती हो गए। या यूं कहें कि पूरे गांव के अस्सी प्रतिशत युवा फौज में भर्ती हो गए।

उस वक़्त फौज में भी तनख्वाह और सुविधाएं बहुत कम थी। आने जाने का बार बार खर्चा न लगे सो साल में एक बार ही घर आते थे। 1962, 1965 और 1972 कि लड़ाई लड़ी।

1965 की लड़ाई में गोलियां गिनके मिला करती थी। अनाज भी कभी कभी तीन चार दिन लेट आता था। वो कौआ मारके भी खा जाते थे। एक दिन सात दिन के लिए अनाज न आया था। गोलियां खत्म हो गयी थी, वही हालत पाकिस्तान के सिपाहियों की भी थी। उन्होंने निर्णय किया कि कल सुबह बंदूक की बेनेट से लड़ेंगे, भूख से मरने से अच्छा दुश्मन को मारके मरे।

बहुत अपनो और दोस्तो को मरते देखा। पर रात तक सूचना आ गई कि हम युद्ध जीत गए थे।

1972 की लड़ाई में वो जिस गाड़ी में थे उसके पास बम फटा, ट्रक पलट गया पर उन्हें लगा जैसे कोई सफेद आकृति सी आयी और उन्हें थोड़ा दूर पटक दिया। उन्हें लगा शायद पिताजी की आत्मा आयी हो या गांव के देवी देवता ने बचा लिया होगा।गांव के देवी देवता में उनकी आस्था बहुत बढ़ गयी थी।

फौज से रिटायर हो स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में सिक्योरिटी गार्ड लगे। खाली समय मे बैंक की कुर्शिया ठीक कर देते थे।रंग पुताई कर देते थे। खाली बैठने की आदत न थी। पैसा भी मिलता था। इमानदारी संस्कार में थी। सो सब के चहेते भी थे।

फौज के बाद इन्हें हिंसा बिल्कुल पसंद न थी। जमीनों के झगड़ो में भी नुकसान उठा लेते थे पर लड़ाई से दूर शांति से जीना चाहते थे।जब रिटायर होने के बाद गांव लौट तो गांव वैसा का वैसा ही था। बस एक सरकारी स्कूल बन गयी थी। बाकी लाइट पानी कुछ न था।

फौज से रिटायर होने के बाद ही उन्होंने शादी की थी। अक्सर गांव के लोग यही करते थे। 32,34 की उम्र तक रिटायर हो शादी करते थे, वो जो आधे जिंदा बच के आ जाते थे।

पीढ़ियों से इस गांव की शायद यही परम्परा या नियती रही हैं। 300 साल पहले जब इनके पूर्वजो को ये गांव राजाओ की सेवा और युद्ध मे बलिदान के लिए मिला था, तब दो हजार लोग यहां बसने आये थे ,अब 300 साल बाद 400 के आसपास लोग हैं। पांच छह संतान सामान्य थी पर आधे से ज्यादा कही न कही काम आ जाते।

अभी भी एक टांग हाथ कटे कई सैनिक मिल जाएंगे, जिन्होंने बाद में शादियां ही नही की।

इनके दो बेटे एक का नाम शैतान सिंह व एक का नाम जालिम सिंह था। उनको नाम तो पसंद न थे पर महाराज ने रखवा दिए। बेटे नाम के बिल्कुल विपरीत थे। पढ़ाई में कमजोर ही थे। शैतान सिंह आठवीं में मासाब को चाय पिला पिला कर और कप प्लेट धो कर जैसे तैसे पास हो गया।

आगे पढ़ाई उससे न हुई। तो काकोसा के पास जोधपुर शहर आ होटल में वेटर की नौकरी पकड़ ली। पिता तो जिंदगी भर बाहर ही रहे ,उनसे ज्यादा कुछ सीखने को न मिला। गांव में जितना सिख सका वो ही था।

वरुण होटल में छह वेटर थे उसमे से पाँच आज की भाषा मे दलित थे।वो शैतान सिंह से खुश न थे । कहते थे हमारी नौकरी खा रहा हैं। एक बार एयरफोर्स में साफ सफाई वाले कि भर्ती आयी पर वंहा की भीड़ ने इसको मारके ही भगा दिया। कहा इन नौकरियों पे सिर्फ हमारा हक़ हैं।

गुस्से और परेशानी के बीच वो काम करता रहता था। सेठजी उसके व्यवहार और ईमानदारी से खुश थे पर काबिलियत के अनुसार और कुछ काम उसको दे नही सकते थे।

एक गरीब घर की लड़की अचरज कंवर से शैतान सिंह की शादी हो गयी। अचरज कंवर के माता पिता का बचपन मे ही देहांत हो गया था। काका ने जैसे तैसे शादी करवा दी, देने को कुछ भी न था। भूर सिंह खुश थे कि बच्चे की शादी तो हो गयी।

शैतान सिंह की आमदनी कम ही थी।साइकल से आना जाना करता था, कभी होटल रुक जाता तो कभी काकोसा के घर। कुछ दिनों बाद एक कमरा ले लिया और पत्नी को शहर ले आया।

पैसे ज्यादा न थे, तो कमरा भी ऐसा ही मिला। गांव में रहने वाली अनपढ़ अचरज को छोटा सा कमरा जेल की तरह लगता था।टायलेट से घिन्न आती थी, उसे खुले में शौच की आदत थी।

शिकायत भी करती तो शैतान सिंह लड़ पड़ता।वो पिताजी से पैसे मांगता न था और भूर सिंह कंजूस भी थे उनसे रुपया खर्च न होता था। वो एक एक पाई बचाने में ही भरोसा करते थे। वे खुद बीमार पड़ने पर भी दवाई न लेते थे।धीरे धीरे स्वत ठीक हो जाते। हालांकि अब उनके दो दो पेंशन आती थी पर फिर भी उनका स्वभाव ही ऐसा हो गया था।

उन्हें ये समझ नही आता था कि वो अनपढ़ थे फिर भी दो दो नौकरी कर ली। पूरा घर संभाल लिया। ये आठवी तक पढ़े हैं फिर भी कोई ढंग का काम क्यों नही करते।

जल्द ही शैतान सिंह के घर बच्ची हुई। बच्ची के बाद अचरज की तबियत खराब रहने लग गई। शैतान सिंह भी देवी देवताओं पर डॉक्टर से ज्यादा भरोसा रखता था। जब भी अचरज पेट मे दर्द की शिकायत करती शैतान सिंह कहता बायांसा बापजी पे भरोसा रखो।

शैतान सिंह होटल से रोज परेशान होके आता, कभी ठाकर होने का ताना मिलता, कभी कुछ। एक पल को जोश भी आता पर उसमे वो स्वाभिमान जैसी भावनाएं न थी।बस पैसा मिलता रहे तो जीवन चलता रहे।

घर आते ही अचरज तबियत का कहती तो उसे दो थप्पड़ जड़ वो अपनी परेशानी कम कर लेता। एक बायांसा बापजी की तश्वीर ला के रख दी कि इनकी पूजा करो सब ठीक हो जाएगा।

शादी के बाद कभी अचरज पिहर न गयी, उसकी पहले भी कुछ ज्यादा कद्र न थी। शादी करवादी ये भी उनका एहसान ही था। वो डरती भी थी कि मेरा कुछ नही पर इनकी वहां इज्जत न हुई तो , वो दुःख से मर जायेगी। अब पति ,सास, ससुर, बच्ची सब हैं, उसका परिवार हैं। वो बस इनकी सेवा करना चाहती थी, इनकी कही हर बात मानना ही उसका धर्म था।

शैतान सिंह दारू सिगरेट से तो दूर ही था पर अब उसने चाय भी छोड़ दी थी कि कुछ पैसे बच सके। पर कुछ फर्क न पड़ा। आखिर उसने अचरज और बच्ची को गांव भेज दिया ।

अचरज गांव की खुली हवा में खुश तो थी पर पेट का दर्द उसे परेशान करता रहता। उसने अपनी सास को भी बताया तो वो हल्दी पिलाने लगी। वो सब भी देवता ध्याने की बात करते।

भूर सिंह का छोटा भाई शहर में ही रहता था। वो उनका बड़ा आदर करता था।वो अख्सर गांव आते रहते थे और उनको शहर आने का भी कहते। पर भूर सिंह को शहर न सुहाता था, कुछ देर में ही शहर खाने लगता और बस पकड़ वो गांव चल देते।

अचरज की बेटी अब सात महीने की होने वाली थी। एक दिन आंगन में झाड़ू लगाते,अचरज पेट दर्द के साथ गिर पड़ी।खड़ा किया तो उल्टियां करने लगी। गांव में तो कोई अस्पताल था नही, 11 किलोमीटर दूर ओसियां में था जिसके लिए 2 किलोमीटर दूर से बस पकड़नी होती थी।

शैतान सिंह से बात भी की, उसने कहा ओसियां दिखा दो, फर्क ना पड़े तो जोधपुर ले आओ, काकोसा के यहां ,में भी यही हूँ।

जालिम सिंह अचरज का देवर था। वो भी अपने भाई जैसा ही था । उसको ये भी न पता था की वो है ही क्यों। मानव भावनाए, समझदारी ये बड़ी बातें थी। वो डरपोक भी बहुत था। बस खाने का शौक था।

जालिम ने कहा जाटो के यहां से जीप मंगवा लेता हूँ। 300 रुपये लगेंगे। 50 रुपये वो कमाने की फिराक में था।

भूर सिंह ने कहा -दो कदम में बोट(प्याऊ) स्टैंड हैं, वहां से बस मिल जायेगी।

जालिम सिंह और भूर सिंह अचरज के साथ चल दिये। भूर सिंह पत्नी को साथ नही ले गये, एक जने का किराया और क्यों लगाना। खुद बहु से बात नही कर सकते थे तो जालम को साथ ले गए।

बोट स्टैंड, घर से 2 किलोमीटर था, उस मिट्टी से टैक्टर ही निकल सकता था।काफी बालू रेत थी। अचरज धीरे धीरे चल पा रही थी। आज उसे मिट्टी जकड़ रही थी। इतना मुश्किल चलना उसे कभी न लगा।

घूंघट में पसीना नल से पानी की तरह टपक रहा था।

बीनणी जल्दी चलो बस निकल जायेगी। बस ये आवाज़ उसके कानों में आ रही थी। वो ससुरजी की बात कैसे टाल सकती थी, सालो बाद बाप मिला हैं। वो पूरी जान लगा के चल रही थी। फिर भी दो बस निकल गयी।

गांवों में बस में आदमी औरतो को सीट दे देते हैं इससे थोड़ा आराम मिला।

बस से उतर कर अस्पताल पहुंचे। डॉक्टर भी देर से आये। जब बारी आयी तो डॉक्टर ने कहा ये सीरियस केस हैं आप तुरंत जोधपुर ले जाओ।

उस समय तीन बज चुके थे, भूर सिंह ने सोचा शहर पहुंचते पहुंचते छह बज जाएंगे। फिर रात रुकना पड़ेगा। उन्हें वहां रुकना पसंद न था। इससे अच्छा सुबह जल्दी निकलेंगे, दिन में दवा दारू कर शाम तक घर लौट आयेंगे। जालिम को ढूंढा तो वो एक कोने में खड़ा कुल्फी खा रहा था। एक थप्पड़ जड़ उसे चलने को कहा।

अचरज को अब अस्पताल से बस स्टैंड फिर बोट स्टैंड,वहां से दो किलोमीटर घर ,फिर सुबह घर से बोट स्टैंड फिर पैदल। फिर जोधपुर तक बस में आना पड़ा। वो गांव की बेटी थी उसने हिम्मत न हारी। काका ससुर के घर भी पहुंच गई। काकिसा के पांव छुए ही थे कि बेहोश हो गिर पड़ी।

काकोसा ने एक पल की देर किए बिना टैक्सी बुलाई। और गांधी हॉस्पिटल ले गए। पानी के छांटे मारने से थोड़ा उसे होश आया।

इमरजेंसी में डॉक्टर ने जैसे ही ब्लड सैंपल लिया ,उसका खून सफेद और पीला था। डॉक्टर ने कहा - "ये तो मर चुकी हैं। अब कुछ नही हों सकता।"

शैतान सिंह ने कहा "पर ये तो बोल रही हैं ना।"

डॉक्टर -"इसका खून पानी बन चुका है। काफी पुराना पीलिया है ज्यादा से ज्यादा 5 मिनट और।

शैतान ने अचरज को देखा।"

अचरज -" शायद मेरे भाग में परिवार का सुख लिखा नही हैं। देखो बायासा बापजी ने पीलिया कर दिया। हमारी बेटी का ध्यान रखना।"

अचरज नही रही। उसके तिये के दिन शैतान सिंह एक दम से चिल्लाया, "मुझे भी पीलिया हो गया हैं। मेरे हाथ देखो पूरे पीले हैं।" उसने आस पास में कोई छुरा रखा था उससे हाथ काटने लगा।

भूर सिंह ने झठ से उसके हाथ पकड़ लिए। जालिम, जालिम जोर से चिल्लाए।

जालिम दूर खड़ा नुक्ती से बने लड्डू खा रहा था ।शैतान सिंह पागलो की तरह हँसे जा रहा था।

बाप बस दोनों बेटों को देखे जा रहा था।



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