Diwa Shanker Saraswat

Others

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Diwa Shanker Saraswat

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दिमाग के घोड़े और पांच शब्द

दिमाग के घोड़े और पांच शब्द

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 पांच शब्दों जिनका आपस में कोई संबंध नहीं। उन्हें जोड़ तोड़कर लिखने की जुगत बनाने में लेखक का सर घूम गया। वैसे वह इग्नोर कर सकता है। पर चाहकर भी इग्नोर कर नहीं पा रहा। पांच शब्दों गोदाम, गाड़ी, अपराध, हथियार और समय में ऐसा क्या साम्य है जिन्हें एक खूबसूरत कहानी में बांधा जा सके।

 कहानी में एक शब्द अपराध आ रहा है। निश्चित ही कहानी आपराधिक ही होगी। अपराध को केंद्र में रखकर दिमाग के अनेकों घोड़े दौड़ा लिये। पर हर बार वे घोड़े थक हारकर वापस अपने अस्तबल में खड़े हो जाते। मानो कि आज घोड़ों की छुट्टी का दिन हो। आखिर दिमाग के घोड़े भी तो कभी छुट्टी मनायेंगे। जब सरकारी दफ्तरों में एक दिन का अवकाश है, फैक्ट्रियों में भी एक दिन का अवकाश होता है, और तो और बाजार में भी साप्ताहिक बंदी सख्ती से लागू होती है। फिर दिमाग के घोड़ों का ही क्या दोष। आखिर एक दिन की छुट्टी तो उन्हें भी मिलनी चाहिये।

 समस्या कुछ विकट आ गयी। पांच शब्द आज ही लेखक के सामने मुंह उठाकर खड़े हैं। फिर लेखक उन्हें किस तरह देखकर अनदेखा करे।

  अच्छे पार्क की हरी हरी घास के साथ आज घोड़ों को उनका पसंदीदा चना भी खिलाया गया। पर ये मुए घोड़े सब खा पीकर भी दौड़ने को तैयार न हुए। संभव है कि शायद ज्यादा खा पीकर और आलस्य आने लगा हो।


 पर ये एक लेखक के दिमाग के घोड़े हैं। अगर शांत बैठे हैं तो भी बेवजह नहीं। यह दूसरी बात है कि लेखक वह वजह समझ नहीं पा रहा। अथवा संभव है कि समझ तो रहा है फिर भी समझना नहीं चाहता। संभव है कि उसके मर्म स्थल पर कोई ऐसी चोट लगी हो कि उसके मुंह से बस आह ही निकल रही हो। फिर दिमाग के वफादार घोड़े पांच शब्दों की खोज खबर छोड़ अपने मालिक के पास बैठ गये हों। ये हल्दी घाटी के चेतक यों ही हार नहीं मान बैठे।


 लेखक को दर्द। पर दर्द से तो गान बनता है। आज तक जब भी लेखक को दर्द हुआ, उसके हृदय से कुछ न कुछ निकला। सत्य तो यही है कि दिमाग के घोड़े साहित्य नहीं लिख सकते। वे तो अंतःकरण की खुशी और वेदना को शब्दों में पिरोना जानते हैं।


 आज लेखक के अंतःकरण में दर्द भी है। दिमाग के घोड़े उस वेदना को शब्दों में जोड़ना भी चाहते हैं। पर फिर रुक जाते हैं।

 निश्चित ही जो आतंक फैलाये, उसका अंत होना चाहिये। निश्चित ही जो भारत मां के अंतर को घायल करे, उसे कठोर सजा मिलनी चाहिये। पर क्या पूरी कौम गलत हो सकती है। क्या भारत माता किसी एक कौम की ही माता है। क्या कुछ चींटियों द्वारा काटने की प्रतिक्रिया में अनेकों चींटियों की हत्या का उदाहरण देकर किसी एक कौम के नाश को जायज ठहराया जा सकता है। क्या विश्व बंधुत्व के अतिरिक्त हिंदुत्व की कोई और पहचान हो सकती है। क्या मात्र इस भय से कि इन गुणों के कारण एक दिन हिंदुत्व ही नष्ट हो जायेगा, हिंदुत्व के मूलभूत गुणों के त्याग को जायज ठहराया जा सकता है। क्या इस तरह के वैमनस्य बढ़ाने बाले पोस्ट का एडमिन द्वारा  स्वीकृत करना उपयुक्त है।

 आज दिमाग के घोड़े शांत बैठे हैं। वे चुपचाप बचपन में पढ़ी एक कहानी को याद कर रहे हैं। जबकि यहूदी और फिलिस्तीनी एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे। जहाँ जिसका पलड़ा भारी था, दूसरे को खदेड़ रहे थे।

 तभी एक यहूदी के पैर एक फिलिस्तीनी ने पकड़ लिये।

 " मुझे बचा लीजिये। कुछ यहूदी मेरे पीछे पड़े हैं। मुझे जिंदा नहीं छोड़ेंगे।"

 अद्भुत है कि एक फिलिस्तीनी को एक यहूदी पर ही विश्वास हुआ कि वह उसकी जान दूसरे यहूदियों से बचा लेगा।

 " ठीक है। इस गोदाम में छिपे रहो। जब तक मैं न निकालूं। बाहर मत निकलना।"

 समय बढ़ता जा रहा था। फिलिस्तीनी वैसे अभी तक जीवित था फिर भी उसका मन बेचैन था। पता नहीं कि कब किसके मन में क्या आ जाये। कब कौन कौमी दुश्मनी निभाने लगे।

 रात का समय आ गया। यहूदी गोदाम में आया। इस बार वह निहत्था नहीं था। हाथ में हथियार लिया वह भी शैतान लग रहा था। शायद उसके मन में भी एक युद्ध चल रहा था। पलड़ा शैतान का ही भारी था।

 " तुम्हें पता है कि तुमने जिस युवक की हत्या की है, वह मेरा ही इकलौता पुत्र है। वह मेरे जीवन का सहारा था। इस अपराध के बाद भी तुम्हें लगता है कि मैं तुम्हें जीवित जाने दूंगा। नहीं। ऐसा नहीं होगा। तुम्हें तुम्हारे अपराध का दंड तो मिलेगा।"

 सत्य यही था। फिलिस्तीनी ने एक यहूदी युवक की हत्या कर दी थी। फिर वह यहूदियों के मध्य फस गया। अपनी जान बचाने के लिये उसी युवक के पिता के पास पहुंच गया। जिस युवक की उसने हत्या की थी, उसी के पिता के गोदाम में वह महफूज था।

 सामने मृत्यु देखकर फिलिस्तीनी थर थर कांपने लगा।

 " अरे फिलिस्तीनी युवक। तुम्हें तुम्हारे अपराध का दंड अवश्य मिलेगा। मेरे इकलौते बेटे की मौत बेकार नहीं जायेगी। अभी आधी रात है। पूरा शहर सो रहा है। चुपचाप मेरी घोड़ा गाड़ी लेकर इस शहर से दूर निकल जाओ। किसी को तुम्हारा पता चले, उससे पूर्व महफूज जगह पहुंच जाओ। तुम्हारे अपराध का दंड यही है कि तुम जीवन भर पश्चाताप की अग्नि में तपो। तुम्हें हमेशा यह याद रहे कि तुम्हारा यह जीवन उसी युवक के पिता की अमानत है जिसका तुमने वध कर दिया था। क्षमा वह अस्त्र है जिसके समक्ष बड़े से बड़ा अस्त्र छोटा है। तुम्हें दंड देने की सामर्थ्य होने पर भी मैं तुम्हें क्षमा कर रहा हूं। क्योंकि जिस पीड़ा से मैं आज गुजर रहा हूं, मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे पिता भी उसी पीड़ा का अनुभव करें। हर पिता की पीड़ा एक ही होती है। "

 बचपन में पढ़ी कहानी को याद कर अब लेखक के दिमाग के घोड़े सो गये हैं। निश्चित ही बुराई कितनी भी बड़ी लगे पर अच्छाई की एक बूंद के सामने कम ही रहती है।

समाप्त



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