Sarita Kumar

Others

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Sarita Kumar

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बरकी ब्रिगेड स्कूल ( प्रथम पुरस्कार की खुशी)

बरकी ब्रिगेड स्कूल ( प्रथम पुरस्कार की खुशी)

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बात सदियों पुरानी है । सन् 1994 की , फिरोजपुर कैंट (पंजाब ) में 7 ड्यू , 65 ब्रिगेड का नर्सरी स्कूल । यूं तो मैं एक टीचर के तौर पर चयनित हुई थी लेकिन कुछ दिनों के लिए प्रिंसिपल मैम छुट्टी पर चली गई थी मिसेज ज्योति पेंडसे इसलिए मुझे प्रिंसिपल की ड्यूटी करनी पड़ रही थी । काम कुछ ज्यादा मुश्किल नहीं था सब कुछ सुचारू रूप से चल रहा था । बीच बीच में कुछ नया एडमिशन और कुछ टी सी भी दिया जा रहा था बहुत सावधानी से सब काम हो रहा था । 

लेकिन अचानक जब स्कूल इंस्पेक्शन की सूचना मिली तब मैं बहुत घबरा गई क्योंकि पूरा ड्यू का इंस्पेक्शन होना था । कोर कमांडर साहब का विजिट था । मुझे अधिक अनुभव भी नहीं था । एक साल पहले ही मैंने बतौर टीचर ज्वाइन किया था । बीस पच्चीस बच्चों को पढ़ाना दिखाना , खेल कूद और पी टी करवाना कठिन नहीं था लेकिन स्कूल इंस्पेक्शन में पूरा स्कूल , बच्चें , स्टाफ , और मैनेजमेंट सब कुछ परफेक्ट होना चाहिए था । एक सप्ताह का समय मिला था । सबसे पहले मैंने प्रिंसिपल मैम से बात की फिर अपने क्लर्क से उसके बाद योजनाबद्ध तरीके से शुरू किया । कुछ कामों की जिम्मेदारी औरों को भी दिया और अपने निगरानी में शुरू कर दिया । दिन रात लग कर हमने खुब अच्छी तैयारी कर ली । अब बारी थी परीक्षा देने की । बच्चों को ज्यादा सीखाने की जरूरत नहीं थी क्योंकि आर्मी वालों के बच्चे वैसे ही बहुत अनुशासित रहते हैं । साफ सुथरे तमीज तहज़ीब के साथ बहुत अच्छा प्रदर्शन किया । मैं भी सुबह सुबह भगवान से प्रार्थना की , हे ईश्वर मेरी इज्ज़त रखना , मुझे जो जिम्मेदारी मिली है उसका सही निर्वाह करूं । प्रिंसिपल मैम का मुझ पर जो विश्वास है वह बरकरार रहे । मैं कामयाब हो जाऊं ।" एक नज़र दर्पण में निहारा खुद को .... एकदम परफेक्ट लगी । आत्मविश्वास और मुस्कान के साथ चल पड़ी । नियत समय पर आगमन हुआ । तीनों यूनिट की कमांडिंग आफिसर की वाइफ , ब्रिगेड कमांडर सिंह साहब की वाइफ , कोर कमांडर साहब की वाइफ मिसेज श्रीवास्तव । बाकी लोगों से तो परिचय था लेकिन मिसेज श्रीवास्तव से पहली बार मिलना हुआ और यही हमारी चीफ़ गेस्ट थी । इन्हीं को फैसला करना था । मैं थोड़ी सी नर्वस होने लगी तभी उन्होंने "कहा कि आप शायद वही सरिता हो न जिसने सिक्कों का हाउसबोट बनाया था ? " मैंने कहा जी हां , आपने देखा है क्या ? उन्होंने कहा "हां सभी ने देखा है और आपको पता है एक्जिबिशन में उस हाउसबोट की वजह से राजपुताना राइफल्स फर्स्ट आया है ?" यह सुनकर मेरा मन हुलसाया और मनोबल बढ़ गया । बाकी सभी आफिसर्स वाइफ भी मेरे पास आ गई और सभी ने जानना चाहा कि मैंने कैसे बनाया ऐसा अनोखा चीज़ ? मैंने बताया कि "कॉलेज टाइम में पहली बार बनाया था तब थोड़ी मदद की जरूरत पड़ी थी लेकिन उसके बाद जब शादी हुई तब ससुराल में भी बनाया था यहां तीसरी बार बनाई हूं ।" कुछ औपचारिक बातचीत के बाद लंच हुआ फिर सभी लोग चले गए । जाते वक्त उन लोगों के चेहरे के भाव से लगा की संतुष्ट होकर गए हैं । भाग्यवश सब कुछ ठीक-ठाक ही रहा । बच्चों ने बहुत अच्छा बर्ताव किया । हर सवाल का जवाब दिया था । बस आशा जो सबसे छोटी और मेरी फेवरेट स्टूडेंट थी जो मेरे हाथों से ही लंच खाती थी वो मेरे पास आकर खड़ी हो गई अपना लंच बॉक्स लेकर । मिसेज श्रीवास्तव ने पूछा आशा से कि लंच क्यों नहीं खाया ? तो उसने बोला मेरी मैम ने नहीं खिलाया ? और रोनी सूरत बना ली ... सरोज भागती हुई आई और उसे गोद में उठा लिया फिर आशा जोर से रोने लगी उसने कहा "मुझे मैम से ही खाना है । " मैं असहज हो गई । बच्चों को लंच के लिए सरोज और वीणा दो आया थी और यह उनकी ड्यूटी थी । मैं तो अतिशय प्रेम के मारे दो चार बच्चों को अपने हाथों से लंच खिलाती थी । हालांकि जानती थी कि यह मेरा काम नहीं है मगर फिर भी कुछ बच्चे मुझे बेहद प्रिय थें । एक रमण भी बहुत प्रिय था और एक थोड़ा बड़ा बच्चा था अंकेश नाम था वो मुझे बेहद पसंद करता था इसलिए वो भी मेरा प्रिय शिष्य बन गया था । अंकेश को जब पता चला कि मुझे बेबी होने वाला है तब उसने कहा था कि "मैम आप अपने बेबी का नाम अंकेश ही रखना ताकि आप मुझे हमेशा याद रख सको ।" तब भारती और पूरण सिंह ने कहा कि अगर लड़की हुई तो ? फिर सारे बच्चों ने कहा उसका नाम भी अंकेश ही रख देना और सभी बच्चें जोर से हंसने लगे भोला भाला अंकेश रोने लगा । मैंने उसे गोद में ले लिया और उससे प्रोमिस किया था कि मैं अपने बेबी का नाम अंकेश ही रखूंगी । उसे टॉफी देकर चुप कराया और सभी बच्चों को डांटा था । 

स्कूल इंस्पेक्शन का रिजल्ट आया और मिसेज श्रीवास्तव फिर आई मुझे फर्स्ट प्राइज देने के लिए । 1994 में 50,000 चेक मिला था फर्स्ट आने पर । मुझे ढेरों बधाइयां मिली । मेरे खुशी का ठिकाना नहीं था । यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी मेरी । इस खुशी में मैंने पार्टी दी सभी स्टाफ को एवं बच्चों को चॉकलेट दिया । प्रिंसिपल मैम को जब पता चला उन्होंने मुझे थैंक्स बोला । प्रिंसिपल मैम वापस आई फिर भी जब कभी कोई कार्यक्रम होता तो उसकी जिम्मेदारी मुझे ही सौंपती थी । मुझे भी अच्छा लगता था । फैंसी ड्रेस कम्पटिशन , पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी का कार्यक्रम इन सभी के लिए खूब तैयारियां करवाती थी । जब मैजिशियन आता तो हम सब भी खूब आनंद उठाते । 

बहुत अच्छा गुजर रहा था बच्चों के साथ । लेकिन डिलेवरी का दिन बहुत पास आया तो तकलिफें बढने लगी मैंने छुट्टी ले ली । लेकिन सुबह में अपने क्वार्टर से बाहर निकल कर बैठना पड़ता था क्योंकि बच्चें मुझे देखना चाहते थे इसलिए बैठ जाती थी । स्कूल और मेरा क्वार्टर बिल्कुल आमने-सामने था । छुट्टी के समय कुछ बच्चें अपने माता-पिता के साथ मेरे क्वार्टर पर आ जाते थे । 

वक्त गुजरता रहा फिर वो शुभ दिन भी आया जब मेरे बगिया में एक फूल खिला .... मेरे घर आई एक नन्ही परी जिसे देखकर मैं बेइंतहा खुश हुई । थोड़ी देर के लिए भूल ही गई कि जब अंकेश को पता चलेगा की मुझे बेटी हुई है तब उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी ...? खैर ... कुमार बहुत बहुत बहुत खुश हुए थे । हॉस्पिटल में ही थी तभी उन्होंने सभी को मिठाई खिलाई थी । तब 2200 तनख्वाह थी और 3000 रूपए की मिठाई बांटी गई थी । दो दिन बाद मैं घर आई । सभी लोग मिलने आए अंकेश भी आया और उम्मीद के विपरीत बहुत खुश हुआ । मैंने उसके गोद में रख दिया । उसने कुछ बोला नहीं इसलिए मैं चुप रही । 19 अप्रैल 1995 को मैं फिरोज़ से हमेशा हमेशा के लिए विदा होकर दिल्ली आ गई क्योंकि यूनिट उड़ी सेक्टर के लिए रवाना हो चुकी थी । मैं अपनी प्यारी सी बिटिया रानी के खिदमत में मशगूल हो गई और धीरे-धीरे उन बच्चों को भूल गई लेकिन अंकेश को नहीं भुला सकी । 21 दिसंबर 1996 को एक और आगमन हुआ । और सौभाग्य से "अंकेश" आ ही गया । मगर इस बात की खबर मैं उस अंकेश को नहीं दे सकी । आज मेरे पास वाला अंकेश 25 वर्ष का हो चुका है । मैंने फेसबुक पर खूब तलाशा उस अंकेश को लेकिन अभी तक मुझे नहीं मिला । जब भी स्कूल , स्टूडेंट और टीचर्स की बातें होती हैं मुझे मेरा स्टूडेंट बहुत याद आता है । अभी भी नाउम्मीद नहीं हूं । शायद मेरी लिखी यह कहानी उसे ढूंढने में मददगार साबित हो । इसलिए मैंने शहर , स्कूल और बाकी सभी का सही सही नाम लिखा है ।

ईश्वर ने एक और मौका दिया । दिल्ली शंकर विहार स्थित 35 ब्रिगेड स्कूल में मुझे फिर से जॉब मिली 2011 से 2012 तक । मुझे मिलें ढेरों बच्चें और फिरोजपुर के बहुत से लोगों से दोबारा मुलाकात हुई मगर उस बच्चे का कुछ अता पता नहीं मिला । मुझे इंतज़ार है अपने उस "अंकेश " का । ईश्वर करें इस मंच पर वो अपने स्टूडेंट लाइफ की कोई कहानी लिखें और हम लोग मिल जाएं । उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुंच गई हूं । न जाने कब जिंदगी की शाम हो जाए ......?


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