Vijay Kumar Vishwakarma

Children Stories Inspirational

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Vijay Kumar Vishwakarma

Children Stories Inspirational

भग्गू

भग्गू

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भग्गू - सुनने में अजीब लगता है, मगर यही नाम था उस नाटे कद के मेहनती युवक का। रायचंद जी के फल की दुकान में कई सालों से भग्गू काम कर रहा था। फल की बड़ी बड़ी पेटियों से आकर्षक फलों को छांटकर भग्गू दुकान में जमाता, कचरे को ठिकाने लगाता और दिन भर झाड़ पोंछ कर दुकान को चकाचक रखता।

ग्राहकों से लेन देन करने और जूस निकालकर पिलाने का काम दूसरे नौकर करते। भग्गू हिसाब किताब में कमजोर था न इसलिए। वैसे भग्गू का दिमाग तेज था मगर गरीब घर में जन्म लिया इसलिए पढ़ने के लिए सरकारी स्कूल में नाम लिखाया गया। भग्गू रोज स्कूल जाता मगर उससे कुछ पढ़ते नही आता था। बिना मास्टर के पढ़ना कैसे सीख पाता बेचारा, उसे तो किसी ने एकलव्य की कहानी भी नही सुनाई थी।

स्कूल के अन्य बच्चों का भी यही हाल था। बच्चे स्कूल पहुंचते और कभी आपस में खेलते तो कभी गुत्थमगुत्था होकर लड़ते और फिर घर में सुनी गालियों से एक दूसरे की भाषा को समृद्ध बनाते। विद्यालय काल में भग्गू को उसके सहपाठी स्कूल में दर्ज नाम से सम्बोधित करते थे। उसके मजदूर बाप ने उसे ईश्वर की कृपा प्रसाद समझकर उसका नाम भगवानदीन रखा था।

यदा कदा होने वाले स्कूल की हाजिरी में जब उसे भगवानदीन कहकर पुकारा जाता तो यह नाम सुनकर अन्य बच्चे उसे भगवानदीन कहकर ही बुलाते। थोड़ा बड़ा होने पर उसके लंगोटिया यारों ने उसे प्यार से दीनू कहना आरंभ किया और वह भगवानदीन से दीनू कहलाने लगा। सरकारी नियमों के तहत वह बिना पढ़े ही अगली कक्षाओं में प्रोन्नत होता रहा।

जब वह आठवीं कक्षा में था। उसी साल उसका बाप एक इमारत में काम करते हुए दीवार ढ़हने से मलबे में दब कर चल बसा। उसकी माँ झाड़ू पोंछा करके किसी तरह अपना और बेटे का पेट पाल रही थी मगर ठंड की एक रात उसका शरीर ठंडा पड़ गया। जिंदा रहने के लिए भगवानदीन उर्फ दीनू को कम उम्र में ही ढ़ाबेनुमा होटलों में काम करने पर मजबूर होना पड़ा। उत्तीर्णांक पाकर वह आठवीं दर्जा में कामयाब तो हो गया मगर आगे की पढ़ाई कर पाना मुश्किल था।

एक तो नाटा कद उस पर कम उम्र, कभी कभार नन्हें हाथों से जूंठी प्लेट फिसल कर गिर जाती तो चार गालियों के साथ दुत्कार कर उसे होटल और काम से बेदखल कर दिया जाता। कभी उसे भूखा रहना पड़ता तो कभी कोई दया खाकर अपने होटल या ठेले में कुछ दिनों के लिए काम पर रख लेता। उसके हालात पर अफसोस जाहिर करते हुए लोग अक्सर उसे अभागा कह देते। और यहीं से उसका नाम अभागा से भागा फिर भागा से भग्गू बन गया।

उसने मन ही मन अपने दुर्भाग्य से समझौता कर लिया था। शायद इसीलिए जब लोगबाग उसे भग्गू कहने लगे तो वह कभी पलटकर अपना वास्तविक नाम बताने की कोशिश नही किया। रायचंद जी की फल की दुकान में काम करते हुए, उसका भी ग्राहको से बात करने, फल तौल कर देने, जूस निकालकर पकड़ाने और रूपये काउंटर में डालने का मन करता लेकिन वह जब भी रायचंद जी से इस बावत् विनती करता तो वे हंसते हुए कहते - "पहले हिसाब करना तो सीख ले ...... फलों को अंग्रेजी में क्या कहते हैं ..... ग्राहकों से कैसे बात करते हैं .... जब यह सब बनने लगे फिर सोंचेगे।"

भग्गू का पूरा उत्साह ठंडा हो जाता। दुकान में काम करने वाले अन्य नौकर कौन सा ज्यादा पढ़े लिखे थे। एक दसवीं पास था तो दूसरा बारहवीं। भग्गू पढ़ने की सोचता मगर कब, कहां और कैसे की उधेड़बुन में ही उलझ कर रह जाता। एक दिन बरसात के शुरूआती हफ्ते में टहलते हुए वहाँ से गुजर रहे एक बुजुर्ग रायचंद जी की दुकान में फल लेने के लिए रूके। छांट परख कर फल चुनने और फिर मोल भाव करने के बाद वे वापस लौटते वक्त छाता उठाना भूल गये। मौसम साफ हो चुका था, शायद इसलिए उन्हें छाते का ध्यान नही आया था।

कुछ देर बाद भग्गू की नजर उस छाते पर पड़ी तो वह छाता लेकर उस ओर दौड़ गया जिधर वे बुजुर्ग गये थे। वह बीच रास्ते में था तभी पानी की कुछ बूंदे टपकने लगीं। बूंदाबांदी से बुजुर्ग को छाता याद आया तो वे वापस लौटने के लिए मुड़े ही थे कि तभी उन्हें एक नाटे कद का नौजवान छाता लिए अपनी तरफ आते दिखा। छाता पाकर उन्होने भग्गू को धन्यवाद दिया। तभी तेज बौछार पड़ने लगी तो वे बुजुर्ग बोले - "चलो मैं तुम्हें दुकान तक छोड़ दूं ... नहीं तो भीग जाओगे।" भग्गू ने संकोच में मना करने का प्रयास किया मगर बुजुर्ग उसे छाते के अंदर खींचते हुए बोले - "तुम छाता लेकर नही आते तो आखिर मुझे भीगते हुए दुकान वापस आना पड़ता न ....।"

दुकान तक लौटते हुए वो बुजुर्ग जो सेवानिवृत्त प्रधानाध्यापक थे, बातों ही बातों में भग्गू की पढ़ाई लिखाई के बारे में पूंछते हुए उसके आगे पढ़ने की मंशा जान गये। उन्हीं की सलाह एवं मदद से भग्गू ओपन स्कूल से नवमी का फार्म भरा। भग्गू रोज सुबह प्रधानाध्यापक जी के घर पहुंच जाता और उनसे कठिन विषय समझता। दुकान की नौकरी करते हुए चार साल में वह बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण कर लिया और उसे काॅलेज में दाखिला मिल गया।

एक बार फिर वह भग्गू से भगवानदीन कहलाने लगा। उसकी मेहनत रंग लाई और वह सम्मान जनक नौकरी पा गया। सुबह उठते ही वो हमेशा की तरह उन बुजुर्ग के घर पहुंच जाता। उनसे ज्ञान की बातें सुनना उसे अच्छा लगता। वो बुजुर्ग भी उसे बहुत पसंद करते थे। सांयकाल भगवानदीन आसपास के ढ़ाबे और दुकानों में कुछ खाने या सामान लेने पहुंच जाता। जहां उसे कोई बाल मजदूर मिलता तो वह उनकी आवश्यक मदद कर उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित करता। उसने ठान लिया था कि अब कोई भगवानदीन भग्गू बनने पर मजबूर नही होगा।


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