chandraprabha kumar

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बाऊजी ने कहा था- भाग ३२

बाऊजी ने कहा था- भाग ३२

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बाऊजी ने कहा था- भाग ३२

     दिन तो किसी तरह बीतते ही हैं। जीजी दुःखभार लिये किसी तरह दिन बिता रहीं थीं। तभी एक अच्छी खबर आई। जीजा जी को एक साल के लिये किसी काम से विदेश जाने का मौक़ा मिला , स्कालरशिप मिल रही थी । जाने का प्रोग्राम बना ।जीजी भी साथ जाना चाहती थीं। तो उनके ले जाने के लिए लिये लोन लेना पड़ा था। दोनों विदेश चले गये। 

    विदेश ले जाने के लिये जीजी ने गंगा जल साथ लिया । अपने देश की मिट्टी साथ रखी। श्रीमद्भगवद्गीता समेत एक दो पुस्तकें रखीं । हाथ धोने के लिये अलग से कुछ मिट्टी साथ रखी । तुलसी जी की पत्तियों साथ लीं । यही लेकर वे विदेश गईं। यही उनके साथ जाने का प्रमुख सामान था।

    जीजी अपने साथ गंगाजल व देश की मिट्टी साथ लेकर गईं थीं , यह पता चलने पर मुझे श्री मदनमोहन मालवीय जी का कहीं पढ़ा हुआ एक संस्मरण याद आ गया। स्वतंत्रता पूर्व की बात है ; श्री गॉंधी जी को गोलमेज़ कॉन्फ़्रेंस में सम्मिलित होने के लिये जाना था। उन्होंने अपने साथ चलने के लिये श्री मदनमोहन मालवीय से कहा क्योंकि उनकी अंग्रेज़ी बहुत अच्छी थी और वे धाराप्रवाह प्रभावशाली भाषण अंग्रेज़ी में दे सकते थे। मालवीय जी ने थोड़ा समय माँगा। गॉंधी जी को आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा-“ समय किसलिये चाहिये।”। तो पता चला कि मालवीय जी को गंगा जल व हाथ धोने की मिट्टी का प्रबन्ध करना था, उतने दिनों के लिये जितने दिन उन्हें रहना था ,इसके बिना वे कहीं नहीं जाते थे । इसका तुरन्त प्रबन्ध हुआ, और उसे साथ लेकर वे गये ।यह अपने देश के प्रति प्रेम की मिसाल थी ।

   जीजी के लिये वातावरण का परिवर्तन बहुत ज़रूरी थी। यहॉं के परिवेश एवं दुःखद घटनाओं से वे बहुत परेशान हो गईं थीं ,पर इससे छुटकारे की कोई दिशा दिखाई नहीं देती थी। विदेश जाना उनके लिये दैवयोग से मिला शुभ अवसर था। यद्यपि विदेश में भी आराम नहीं था, खाना पकाना वहॉं भी था, परिचितों का भारत से आना-जाना लगा रहा था। जीजा जी वहॉं जाकर बीमार भी पड़ गये। उनकी तीमारदारी करनी पड़ी। यह सब अड़चनें थीं, इसके बावजूद भी जीजी वहॉं ख़ुश थीं क्योंकि ससुराल पक्ष से कोई बाधा देने या आलोचना करने वाला वहॉं नहीं था। अच्छा रहता वे वहीं रह जाती। क्योंकि जीजाजी को वहॉं नौकरी भी मिल गई थी । जीजाजी का काम अच्छा था , वे मेहनती थे। और उन्होंने एक साल वहॉं नौकरी करी भी।इस तरह वहॉं दो साल रह गये। 

    वहॉं फल , दूध , सब्ज़ी सब ताजी अच्छी गुणवत्ता की मिलती थी। चावल आसानी से मिल जाता था, पर आटा लाने दूर जाना पड़ता था पैदल चलकर। बर्फ़ पड़ी रहती थी, बर्फ़ पर से होकर जाना पड़ता था। जाते समय तो फिर भी ठीक रहता था ,पर लौटकर आते समय आटे का बोझ लिये आना मुश्किल पड़ता था। लेकिन यह परिश्रम फलदायक रहा, सेहत अच्छी हो गई। 

    वहॉं सब कुछ नया था। दुःखद अतीत वहॉं विस्मृत सा हो गया। नया वातावरण ,नये लोग, नयी भाषा । अतीत की कटु स्मृतियॉं इतिहास हो गई लगती थीं। जीजी के मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य के लिये यह सब औषधिस्वरूप था। वहॉं पड़ौस में एक परिवार के दो नन्हें बच्चे जीजी के पास खेलने चले आते। उनकी भाषा फ़र्क़ थी। न जीजी उनकी भाषा समझती थीं ,न वे जीजी की भाषा समझते थे। पर हृदय की भी एक भाषा होती है जो सरल हृदय बच्चे अच्छे से समझ जाते हैं । जीजी को गोल मटोल प्यारे प्यारे बच्चे अच्छे लगते थे और वे उन्हें खेलने देने में कोई रोक टोक या एतराज़ नहीं करती थीं।तो बच्चे भी प्रायः ही चले आते थे ,और जीजी को भी अच्छा लगता था। बच्चों को खेलने के लिये वे छोटे एक दो खिलौने भी दे देती थी, जो उन्होंने लाकर रख लिये थे। 

    जीजा जी वहॉं भी सुबह ही सुबह निकल जाते थे, शाम को लौटते थे। वहॉं भी उनका यही रूटीन रहता था कि सुबह ही सुबह दही रोटी खाकर निकल गये और साथ में दो रोटी पर दही चुपड़कर लपेटकर चार तह बनाकर पैंट की पीछे की पाकेट में रख लीं, दोपहर में खाने के लिये। दिन भर काम में व्यस्त रहे, देर शाम को लौटते थे, तब खाना खाते थे। ठीक से खाना तभी बनता था। पीछे जीजी भी ऐसे ही काम चलाती थीं और साथ में कभी केला या कोई फल ले लिया। भारत से किसी के आने पर काम बढ़ जाता था, उनके लिये खाने व ठहरने का इन्तज़ाम करने के लिये। उनको मना भी नहीं किया जा सकता था। जबकि बड़ी मुश्किल से तो अपना खर्चा वहॉं वे निकाल रहे थे। क्योंकि जो स्कालरशिप आने के लिये मिला था , वह एक व्यक्ति के लिये था और नगण्य था। 

     वहॉं साल भर बाद नौकरी मिल जाने पर इतनी दिक़्क़त नहीं रही थी। नौकरी अच्छी थी। उनके अच्छे काम के देखते हुए मिली थी। उसमें अमेरिका भी घूमने को मिल जाता, और भी जहॉं चाहें घूम सकते थे। आकर्षण बहुत थे। जीजी के लिये तो बहुत ही अच्छा था। ससुराल से छुटकारा मिल जाता। योरोप तो क्या , दुनिया भी घूमने को मिल जाती। दुनिया घूमने का उनका सपना भी था। 

  जीजी में पर अपना देशप्रेम उत्कट था। वे विदेश में रहने या बसने की सोच भी नहीं सकती थीं। उन पर ये पंक्तियॉं लागू होती थीं-

“ मेरा मन वनवास दिया सा,

राजमहल का पाहुन जैसे

तृण कुटिया वह भूल न पाये।”

  घर में लौटने पर फिर वही तिरस्कृत ज़िन्दगी थी, जो उनके लिये कष्टमय थी। पर स्वेच्छा से उन्होंने बाहर की सुख सुविधा छोड़ दी। यह एक बहुत बड़ा त्याग था। अमेरिका जाने का अवसर मिलने पर भी वह आकर्षण त्याग दिया। विदेश में नौकरी का आकर्षण त्याग। दिया। कितने ऐसे हैं जो यह आकर्षण त्याग सकें। 

   वहॉंपर विदेश में दो साल बिताकर वापिस अपनी उसी ज़िन्दगी में लौट आये। वहॉं की केवल यादें साथ रह गईं। जीजी में “ जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” की भावना थी। जन्मभूमि की मिट्टी से भी उन्हें प्यार था, जिसे वे अपने साथ लेकर गईं थीं।


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