Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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Bhawna Kukreti

Others

4.5  

Bhawna Kukreti

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बास

बास

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ट्रक के पीछे मीठी नींद में सोए हुए था। नाक में भरती अजीब सी गंध ने उसे जगा दिया।"कहाँ पहुंचे हम?", घर से नौकरी की आस में आये उस सज्जन से पहाड़ी लड़के मुकुंद ने पूछा, " फरीदाबाद" आस पास उसके गांव के लड़के जाग चुके थे। "ये बास कैसी है?","फैक्ट्री का इलाका है।" उसकी आँखें भी अब जलन महसूस करने लगी थीं।



पहाड़ की साफ सुथरी आबोहवा , बेरोजगारी-पलायन की आंधी के आगे बेबस नतमस्तक हो चुकी थी और मुकुंद आज यहां बड़ी बड़ी फैक्ट्रियों के बीच सल्फर,अमोनिया और भी न जाने किस किस तरह की गैस को अपने फेफड़ों में भरने को मजबूर था।



कुछ महीनों में उसने काम के बाद, काफी शहर घूम लिया था। पर उसका मन अब भी पहाड़ की यादों में गाहे बगाहे उलझता था। कभी कभी किसी छुट्टी की सुबह उसे लगता कि वह अपने ढिसाण (बिस्तर) में पड़ा है और उसकी ब्व्यि (मां) उसे जगाने को आवाज़ लगा रही हो "ए निर्भगी ..कण कांडा लगीं तवे फरी ..उठे जाsss...गौ रंभाण लगीं येsss।"


शुरू-शुरू में उस शहरी जंगल में उसे कोई भी पहाड़ी मिलता, उसे लगता कि उसके परिवार का कोई मिल गया। वो न्योछार हो जाता था । लेकिन धीरे धीरे उसे समझ आने लगा की वहां आस पास बसे कुछ खाये-अघाये पहाड़ियों के दिलो में भी सल्फर और अमोनिया जैसी गैसों ने अपना घर बना लिया है।देखते देखते 2 साल बीत गए , अभी तक वह एक बार भी अपने गांव नही जा सका है। न पगार बढ़ी है न तो कोई सुविधा, आज भी वह 5 और मजदूरों के साथ एक छोटे से कमरे में रहता है 500/- महीना किराया देकर रह रहा है। 20-22 लोगों के बीच एक शौचालय औंर बाथरूम।खाना सब मिल जुल कर, आने के कुछ समय बाद बनाने लगे थे।बाहर नाश्ता करना भी काफी महंगा पड़ जाता था।कभी कभी उसके मन मे आता कि इससे अच्छा तो वो गांव में ही खेती करता। लेकिन फिर तनख्वाह बढ़ने की आस उसे उस सोच से बाहर ले आती।


पिछले कुछ दिनों से फक्ट्री में हलचल है । आज उसे और बाकी मजदूरों को फैक्ट्री के दूसरे सेक्शन में भेजने के लिए शेड में बुलाया गया है। सुना है, सेक्शन में भेजना बहाना है असल मे रूपयों का लेन देन और छटनी होनी है।


सामने सेमवाल जी थे , नए मैनेजर। मुकुंद ने लाइन में पीछे से उचक कर सेमवाल जी की ओर देखा। देखे- देखे से लगे। उसे याद आ गया ,इन से क्षणिक मुलाकात हुई थी। जिस दिन यहां पहुंच था, उस दिन बहुत भूखा था। बाजार में फोन पर उनको गड्वाली बोलते सुना तो उसने अपनी बोली में गड्वाली रेस्टुरेंट का पता पूछा था कि शायद उसे वहां सस्ता खाना मिल जाये।। तब बड़ी बुरी तरह से उन्होंने इसे झाड़ दिया था "गेट लॉस्ट..भीख मांगने का नया तरीका सीख लिया है...कोई गड्वाली दिखा नहीं कि गड्वाली बोल रिश्ते निकालने लग जाओ। इधर सुनो ,काम धाम करो कुछ, नाक मत कटाओ पहाड़ की।" और बिना कुछ सुने स्कूटर स्टार्ट कर बढ़ गए थे। आज उनको सामने देख मुकुन्द का मन उनके प्रति जहरीली दुर्गन्ध से भरने लगा।


उसका एक साथी बोला " बड़ा किस्मत वाला है मुकुंद , तू तो बच जाएगा बे ! तेरे पहाड़ के हैं!! नौकरी पक्की तेरी। ", मुकुंद फीके मन हँसा। "आज कल पहाड़ से निकला आदमी, ज्यदा दिन पहाड़ी नहीं रहता ...शहर का हो जाता है बन्धु। सिर्फ़ देब्ता पूजने वक्त चोला बदल लेता है" मुकुंद ने जवाब दिया।


सेमवाल जी सबके नाम पुकार कर उनको कोई पर्चा पकड़ा रहे थे, और 500 रुपये ले रहे थे। एक तरह से नई नौकरी का कमीशन था क्योंकि ये पर्चा और कुछ नहीं था सिर्फ स्वीकृति पत्र था , लब्बोलुआब ये की "अपनी जिम्मेदारी में स्वयं लेता हूँ।" नई फैक्टी, सेहत के लिए हानिकारक थी ,सांद्र (concentrated) कैमिकल बनाने वाली और यहां से दूर कच्छ,गुजरात मे थी। 5000/- महिना और डोरमेट्री। ये ऐसे था जैसे आसमान से गिरे और ... । यहां 5000/- मिलते थे, जिसमे से वह 2000/- गाँव भेज पाता था। जब से आया था तब से गांव का खानपान, शरीर मे फैक्ट्री के विषाक्त माहौल से जूझ रहा था। मगर कम पढ़े लिखे मुकुंद के आगे कोई और मुक्ति का दरवाज़ा न था कि खोले और भाग निकले। आस पास की नई फैक्ट्री में नौकरी के लिए , पहले 3 महीने की तनख्वाह दलाल को देनी होती था। लेकिन आज इसी फैक्ट्री के मालिक की दूसरी फक्ट्री में भेज रहे थे 500/- लेकर। यहां आवास अपना नही है वहां आवास होगा। क्या पता ओवरटाइम से शायद कुछ पैसे बचेंगे।


"मुकुंद दत्त जोशी?" उन्होंने उसे बुलाया। सामने गोरा-चिट्टा, लम्बा किशोर से युवा होता लड़का सामने देख सेमवाल जी एक मिनट को उसे देखते रहे। "कै गोंक छै रे तू? "(तुम किस गाँव के हो?") मुकुंद में हिंदी में जवाब दिया, "ऋषिकेश से उपर.." , नौटियाल जी ने टोका "अपड़ी भाषा म बुलुण त्वि थै शर्म औंणी छै?!"(अपनी भाषा में बोलने में तुम्हें शर्म आ रही है?), अब मुकुंद बोला" क्या हो जाएगा गढ़वळि बोलने में सर , भाई-बन्द मान लोगे? और क्या दलाली के 500 रुपये छोड़ दोगे ?", मुकुंद ने ताना दिया। सेमवाल जी को शायद याद आ गया की वह उसे पहले कहाँ और कैसे मिल चुके हैं, "क्य हवे जाल?! क्य ह्वे जाल?! "(क्या हो जाएगा? क्या हो जाएगा ? ) दांत किटकिटाते मैनेजर साहब तुरन्त तैश में आ गये।


मुकुंद फिर मुस्कराया। सेमवाल जी ने फौरी नज़र अपने साथ खड़े स्टाफ और सामने लगी लाइन पर दौड़ाई। तुरन्त संभल कर बोले " अच्छा त इन करा महराज, स्यो कागज़ वापस कैरि दिया।",( अच्छा तो ऐसा करो कि ये कागज़ वापस कर दो) नौटियाल जी ने उस से कागज़ ले लिया।


अब मुकुंद अमो "बल धन्यवाद नौटियाल जी अपकु, आप भी उन्नी पहाड़ी जन छौ ,जे क भितर शैहरे की बास बसइं छ, नमस्कार।"

(आपका धन्यवाद आप भी उन्ही पहाड़ियों की तरह निकले जिनके अंदर शहर की बदबू भर गई है ,नमस्कार)।




मुकुंद ने शेड से बाहर आकर कुछ देर चहल कदमी की। अपने बर्ताव से वह खुद मॆ आये बद्लाव को लेकर परेशान हो गया। उसने गाँव, अपने घर फोन मिलाया ,"ब्व्यि प्रणाम , मैं घर आ रहा हूँ। यहाँ मन में बास भरने लगी है, ऐसे में तेरे मुकुन्दी ने मर जाना यहाँ।" उधर से मुकुंद की बोई बोल रही थी " ए जा बुबा ..ए जा, त्वे बगैर घौर, गौ, बख़र, पुंगड़ा सब्या सब वीरान हवे ग्याई,ए जा...ए जा।" माँ स्नेह से उसे घर वापस बुला रही थी।

निआ सी हँसी हँ


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