अपनी मिट्टी
अपनी मिट्टी
“पिताजी आपकी ये ज़िद मेरी समझ में नहीं आ रही है। अभी गांव जाने का क्या प्रयोजन है? हमलोग यहां हैं। वहां सबकुछ छूटा हुआ है। कौन देखभाल करेगा आपकी? तबियत खराब होगी तो बीस कि.मी के बाद ही कोई ढंग का डॉक्टर मिलेगा न। अभी यहां का इलाज चल ही रहा है। हमें आपकी फिक्र है। कैसे जाने दें, अकेले गांव। पिताजी आप यहीं रहिए न। यहां कोई दिक्कत हुई है तो बताइए, मैं और उषा उसे दूर करेंगे।” सुरेश ने अपने पिता को समझाने की कोशिश की।
“बात दिक्कत की नहीं है बेटा। मैं तुम लोगों से नाराज़ हो भी नहीं सकता हूं। अपनों से कैसी नाराज़गी। फिर एक साल से तो पूरी तरह बीमार ही हूं। तुम दोनों ने मेरी बहुत अच्छी सेवा की है। इस बात के लिए तो मैं आभारी हूं। कितने प्यार से तुम और उषा मेरी हर जरूरत का ध्यान रखते आए हो। तुम्हारी माँ के जाने के बाद तो मुझे लगने लगा था इस उमर में अब मुझे कौन देखेगा। पर तुम दोनों ने एहसास दिलाया कि तुम लोग तो मेरे हो ही। अब तो अंतिम समय आ ही गया है। मुझे गांव ही जाना चाहिए। किराएदार हैं, अड़ोस – पड़ोस के लोग मेरी देखभाल आराम से कर देंगे। मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी। एक बार पहुंचा दो। तुम लोग को भी थोड़ा आराम मिलेगा। रोज- रोज हॉस्पिटल के चक्कर काट- काट के दुबले हो गए हो।” नरेश बाबू का अपना ही तर्क था।
“पिताजी ऐसा मत कहिए,” सुरेश ने उनके हाथ पकड़ लिए। “हमलोग हॉस्पिटल के कारण परेशान नहीं हैं। अभी तक जो भी पैसा इलाज में लगा है वो तो इंश्योरेंस का ही है न। मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई। उषा को भी नहीं।” सुरेश की समझ में नहीं आ रहा था कि दो दिन से उसके पिता अचानक गांव पहुंचा देने की ज़िद क्यों करने लगे थे। दोनों पति- पत्नी ने कई बार सोचा कि कहीं अनजाने में पिताजी का दिल न दुख गया हो। पर काफी याद करने के बाद भी ऐसी कोई घटना या बात दिमाग में नहीं आई। पिताजी पिछले एक साल से कैंसर के थर्ड स्टेज के साथ जिंदगी की जंग लड़ रहे थे। दिल्ली जैसी जगह में उनका ठीक से इलाज भी हो पा रहा था। पर पिताजी मान ही नहीं रहे थे।
अचानक सुरेश को कुछ सुझा। “‘पिताजी ’, कहीं घूमने जाने का मन है तो बताइए, हमलोग प्लान करते हैं। उसने ऐसे पूछा जैसे उसे कोई चाबी मिल गई हो।”
“नहीं, बेटा सिर्फ गांव जाना है।” नरेश बाबू ने कहा और सामने दीवार ताकने लगे।
दो पल ठहर कर बोले, “बेटा! अपने गांव की बात ही कुछ और होती है। आदमी हो या जानवर या फिर पशु – पक्षी ही, दिन भर चाहे जहां विचरण कर लें, शाम को तो अपने घर ही लौटते हैं। मैं भी जीवन भर जगह- जगह घूम चुका। अब अंतिम समय में गांव ही लौटना होगा मुझे। अपनी मिट्टी अपनी होती है बेटा। वह माँ के आंचल जैसा सुख देती है। अपने गांव के लोगों, बचपन की गलियों, स्नेह के रिश्ते को देखकर चैन से मर सकूँगा। वहां जो शांति मिलेगी कहीं नहीं मिल सकती है बेटा। अपनी मिट्टी से सबको यही प्यार होता है। तुझे भी है पर आज वो नहीं दिखेगी। एक समय तुझे भी अपनी मिट्टी बेतरह याद आएगी।” नरेश बाबू थोड़ा हांफ गए।
“पिताजी”, ऐसी बातें मत कीजिए सुरेश रूआंसा हो गया। उसे लगा कहीं पिताजी को पता तो नहीं चल गया।
‘बेटा सबके माता- पिता एक दिन जाते ही हैं। तू इतनी बातें क्यों सोच रहा है। मैंने उस दिन डॉक्टर की बात सुन ली थी कि अब इन्हें घर पर ही रखिए किसी भी दिन कुछ हो सकता है। अब डॉक्टर के यहां जाने की ज़िद तो है नहीं बेटे। अंत समय है। गांव बुला रहा है। पहुंचा दे बेटा।‘
सुरेश सोचने लगा, अपनी मिट्टी, अपना गांव क्या इतना प्यारा होता है?
