अपनी कल्पना
अपनी कल्पना
एक समय की बात है, एक किसान अपना खेत हल से जोत रहा था कि ज़मीन में गड़े पेड़ के एक ठूंठ से टकराकर उसका हल टूट गया। बिना हल के खेत जोता नहीं जा सकता था। उसका काम रुक गया।अब वह कैसे खेत को जोते ? खेत जोतना भी ज़रूरी था क्योंकि उसके बाद ही बीज डालकर बुवाई होती।
“ अब मैं क्या करूँ?” किसान ने सोचा।
फिर उसको विचार आया कि उसके पड़ोसी के पास हल है, उससे मॉंग कर अभी काम चल जायेगा।
किसान ने मन ही मन कहा-“ मैं अपने पड़ोसी से हल माँग कर ले आता हूँ। “
वह पड़ोसी किसान से हल मॉंगने चला। पर उसके अपने मन में तर्क वितर्क चल रहा था। वह साथ वाले खेत की तरफ़ जाते जाते सोच रहा था- “ पड़ौसी बड़ा सख़्त आदमी है ।मैं उसे बताऊँगा कि हल कैसे टूटा तो वह फ़ौरन कहेगा-
‘देखकर काम क्यों नहीं करते ? तुमको ज़्यादा सावधान रहना चाहिये। ‘
तब मैं जवाब दूँगा- "यह तो किसी के साथ भी हो सकता है। “
तब वह कहेगा-“ हल महंगे हैं और मरम्मत में भी काफ़ी पैसे लगते हैं। “
मैं कहूँगा-“ यह सच है। पर मैं अपने हल और औज़ारों की अच्छी तरह से देखभाल करता हूँ। इस इलाक़े में ऐसा कोई नहीं है जो मुझसे ज़्यादा अपने हल की अच्छी देखभाल करता हो।”
वह पड़ोसी कहेगा-“ यह तो मैं नहीं जानता। लेकिन यदि मैंने अपना हल तुम्हें दे दिया और मेरा हल भी टूट गया तो क्या होगा ? मैं कैसे काम करुंगा ?
किसान सोच ही रहा था कि-“ तब मैं यह कहूँगा ••••”
पर उसी समय तक वह पड़ोसी किसान के पास पहुँच गया और उसे अपनी झोंपड़ी के छप्पर पर काम करते हुए देखा।
पड़ोसी किसान ने उसकी ओर देखकर पूछा-“ कहो भाई, क्या बात है, कैसे आये ? कुछ चाहिये क्या ?”
वह किसान अपने मन के संवादों में ही उलझा हुआ था। उसने किसलिये आया था यह कुछ नहीं कहा बल्कि कहा-“हॉं , यह कहने आया था कि तुम्हारा हल तुम्हें ही मुबारक हो” । यह कह कर वह किसान लौट गया।
किसान अपने मन में ही सवाल जवाब कर रहा था और उसी झोंक में बिना कुछ बताये लौट गया। किसान के व्यवहार पर हमें हँसी आती है, पर क्या हम सभी अपने मन की कल्पनाओं में नहीं डूबे रहते ? बजाय किसी से कुछ स्पष्ट कहने के अपने मन में ही उत्तर प्रत्युत्तर चलते रहते हैं। अपने ही विचारों में खोये रहते हैं और वास्तविकता की अनदेखी कर देते हैं। दूसरे का जवाब भी खुद ही सोच लेते हैं। उसे कुछ कहने का या उससे कुछ पूछने का साहस ही नहीं जुटा पाते। दूसरे का जवाब स्वयं सोच लिया और पीछे हट गये। इस प्रवृति से कुछ लाभ नहीं होता, अपना ही नुक़सान होता है। दूसरा क्या कहेगा यह उसी पर छोड़ देना चाहिये और अपनी बात संकोच छोड़कर स्पष्टता से बतानी चाहिये, तभी समस्या का हल होता है।