आत्मसम्मान का हक

आत्मसम्मान का हक

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"तुम्हारी लव मैरिज है क्या?"

"नहीं तो आंटी, आपको ऐसा क्यों लगा?"

"मुझे लगा कि माँ-बाप से लड़कर अपनी मर्ज़ी से ब्याह किया होगा इसलिये तुम्हारे पास खास सामान नहीं है।"

"हा हा हा... ऐसा कुछ भी नहीं है। घर से उठा कर लाने में परेशानियां थीं! अब यहीं धीरे-धीरे सब ख़रीद लेंगे।"

जब भी बाजार से लौटती, सीढ़ियों से ऊपर आते वक़्त अक्सर मकान मालकिन से आमना-सामना होता और वह कुछ ना कुछ तीखा बोल जातीं। मानो उनके घर में मुफ्त में रह रहे हों या फिर दो महीने के एडवांस के साथ मान-सम्मान भी उनके पास गिरवी रख दिया हो। वास्तविकता यह थी कि हम दोनों की रुचि हल्के-फुल्के सामान रखने में ही थी। पति के साॅफ्टवेयर कंपनी में काम करने के कारण कभी भी ऑनसाइट जाना पड़ता था। इन्ही कारणों से हमने अपना घर खरीदने के पहले अतिरिक्त बोझ बढ़ाना नहीं चाहा। पर पता नहीं वह हमें क्या समझ रही थीं। हमारी सादगीपूर्ण जीवन शैली उनकी नज़रों में गरीबी थी।

एक बार ऐसे ही पीछे पड़ गयीं कि मैं स्कूल के बच्चों को लेकर लाल किला जा रही हूँ। चलो! तुम्हारा घूमना भी हो जाएगा। हम साथ लौट आएँगे।

"अरे नहीं आंटी! अगर मेरे पति को पता चला कि इतनी धूप में मैं बच्ची को गोद में लेकर लाल किले पहुँची हूँ तो मुझे बड़ी डाँट पड़ेगी।"

"कैसे पता चलेगा? हम टीचरों व महरियों की टाइमिंग एक सी होती है। सुबह साढ़े सात बजे पति को ऑफ़िस विदा कर निकलेंगे और शाम होने से पहले घर आ जाएँगे।"

हद हो गई, स्वयं शिक्षिका होकर झूठ बोलना सिखा रही थीं। साथ ही वह अपना भी मज़ाक बना रही थीं। अभी उनसे बातें चल ही रही थीं कि हमारे मोहल्ले के सब्जी वाले ने गुस्से से आवाज़ लगाई।


"ओ मैडम जी! आकर मटर ले लो!" सभी घरों में बेचकर दोपहर तक लौटा था।

"आती हूँ भैया! चलो! हम दोनों आधा-आधा कर लेंगे।"

"ठीक है पर वह ऐसे क्यों चिल्ला रहा है आंटी?"

"सुबह ही दाम कम कराया था ना! इसी से चिढ़ गया है।"

धूप के कारण हरे मटर सूख कर भूरे हो चुके थे। चालीस रुपए किलो बेचने वाला अभी आखिरी सौदा चालीस के चार किलो तौल कर ठेला खाली कर गया। उन्होंने बड़े ही शांत भाव से दो थैलियों में लाकर मुझसे बीस रूपये ले लिए। एक-एक रुपये गिन-गिन कर खर्च करने वाली आंटी मेरे कजिन को कार के नंबर से बुलातीं। वह उन दिनों उसी क्षेत्र में साइबर कैफे चलाता था और अक्सर मिलने आ जाता।

"तुम्हारा मारुति कार वाला भाई जिसका नंबर ×××× है, आया था। तुम कहाँ थी?"

"अच्छा! पिंकू आया था? बेटी को पार्क ले गई थी।" जिसे मैं निक-नेम से बुलाती वह उनके लिए कार ओनर होने के कारण प्रतिष्ठित व्यक्ति था।

उनके घर में मुश्किल से एक वर्ष रही मगर उन्होंने जिंदगी भर का पाठ पढ़ा दिया। अव्वल तो यह कि चाहे आप आर्थिक रूप से कितने भी मजबूत इंसान क्यों नहीं हों, लोग आपके जीवन-स्तर को देखकर ही आपकी हैसियत आँकते हैं। या यूँ कहें कि इंसान से ज्यादा सामान का सम्मान करते हैं।

दूसरा यह कि मकान-मालिक कभी भी किराएदार के सगे नहीं होते। उनके तनख्वाह के एक मोटे हिस्से के साथ उनके स्वाभिमान पर भी अपना अधिकार समझने लगते हैं। ज़मीन के महज एक टुकड़े पर अट्टालिका तैयार कर उसके किराये पर ऐश करने वाले मकान मालिक यह क्यों भूल जाते हैं कि अपने प्रदेशों से नौकरी हेतु आए लोग भी अच्छे खानदान से ताल्लुक रखते हैं। किराए पर रहने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि किसी को उनके आत्मसम्मान से खेलने का हक मिल गया है।



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