365 दिन
365 दिन
बचपन के साथियों में यदि सबसे पहला नाम पूछा जाये तो वह है नागो। नागो अर्थात आज की तारीख में नागेश्वर बाबू। फिलहाल स्टेट फोरेंसिक साइंस में अहम पद पर है।
जहां तक मुझे याद है काॅलेज तक की पढ़ाई हमने साथ साथ की। और उसके बाद प्रतियोगिता परीक्षा तैयारी के मद्देनजर हम दोनों अलग अलग हो गए। और अलग होते ही विलुप्त हो गई हम दोनों की उन्मुक्त हंसी।
करीब बीस बरसों बाद एक दूसरे से मिलने का जरिया बना फेसबुक। यदा कदा मैसेज का आदान प्रदान होने लगी परंतु भावनाओं की अभिव्यक्ति में मैसेज स्टीकर के अलावे कुछ भी न था।
पिछले साल नव वर्ष आगमन के एक दिन पूर्व उसने बाबा मंदिर में पुजा के बहाने सपरिवार आने की सूचना मुझे दिया। मैं काफी खुश हुआ। मैंने जिद किया की वे मेरे क्वार्टर में ही रूके। परंतु ऐसा हो न सका क्योंकि वे पहले ही ऑनलाइन होटल बुक कर चुके थे।
फिर मेरे आग्रह पर पुजोपरांत वे मेरे द्वारा पूर्व प्रायोजित वनभोज कार्यक्रम में सम्मिलित होने की हामी भर दिये। और उनके शाकाहारी होने के कारण अकस्मात मेन्यू भी बदलना पड़ा।
पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार त्रिकुट पहाड़ के तलहटी में सब कोई पहुँचे। भूली बिसरी यादों को ताजा करते हुए हम-दोनों (सपरिवार) साथ वनभोज मनाये और कुछ सेल्फी भी एक दूजे के साथ लिये। लेकिन जिस उन्मुक्तता की बेसब्री से इंतजार था उसका लेस मात्र भी अनुभव न हो सका। मन में एक आशंका सी होने लगी कहीं एक अकथित दूरी का कारण पद समानता का न होना तो नहीं अथवा जिम्मेदारी ने यह सब छीन तो नहीं लिया ? आदि इत्यादि...
वनभोजोपरांत उन्होंने बतौर साइंटिस्ट पहाड़ के इर्दगिर्द से कुछ अवशेष भी एक पाॅलिथीन में संग्रहित किये। साथ ही मुझसे कुछ ऐतिहासिक जानकारी भी संकलित किये। यथा पहाड़ का उम्र , पहाड़ी स्थित जंगल में पाये जाने वाले पशु पक्षी के प्रकार आदि इत्यादि। इसी क्रम में मैंने देखा कि वनभोज स्थल से सटे झाड़ी से छोटे छोटे अस्थि अवशेष भी बहुत ही बारीकी से संग्रहित किये। मैंने उनके उक्त गति विधि को बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दिया।
मेरे यहां से प्रस्थान करने के लगभग सप्ताह भर बाद नागो का फोन आया। कुशल कुशलक्षेम के बाद हर्षित मुद्रा में उन्होंने बताया कि त्रिकुट पहाड़ से जो भी अवशेष उन्होंने एकत्र किया था उसमें से एक अवशेष पर उनका शोध आज लगभग आ गया है। मैंने भी जिज्ञासा वश हौसला अफजाई करते हुए बोला वाह। जरा मुझको भी बताओ कि क्या शोध किया तुमने। विस्तार पूर्वक उन्होंने जो जानकारी दी वह वाकई रोचक था।
आगे उन्होंने बताया कि वनभोज स्थल से सटे झाड़ी से जो छोटे छोटे अस्थि अवशेष संग्रहित किये थे। मुझे आशंका थी कि कहीं यह हजारों साल पूर्व विलूप्त हो चूके डायनासोर का तो नहीं ? लेकिन परिणाम बिल्कुल उलटा आया है। कई तरह के रासायनिक परीक्षण के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि यह किसी पक्षी का अस्थि अवशेष है। साथ ही मैं इस निष्कर्ष पर भी पहुंचा हूं कि उक्त अस्थि में लगभग 360 से 370 दिन पूर्व तक जीवन था। मतलब ये विलुप्त प्राय प्राणियों का अस्थि अवशेष नहीं है।
मैंने प्रश्न किया तुम जो 360 से 370 दिन का वैज्ञानिक रिपोर्ट दे रहे हो क्या यह 365 दिन भी हो सकता है।
नहीं ! अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगा। मेरा अनुसंधान जारी है , कुछ दिनों बाद मैं पुनः इस बिंदु पर बात करूंगा।
मैंने उन्हें बताया ठीक है तुम अपना अनुसंधान जारी रखो लेकिन मैं बता दे रहा हूं जिस अस्थि की तुम बात कर रहे हो, मेरा अनुमान बता रहा है कि उसमें 365 दिन पहले जीवन था अर्थात यह विलुप्त प्राय प्राणियों की श्रेणी में नहीं है।
फिर उन्होंने अचरज भरे स्वर में पलटवार करते हुए पुछा कि बिना किसी रासायनिक परीक्षण के तुम कैसे कह सकते हो कि उक्त अस्थि अवशेष में ठीक 365 दिन पूर्व तक जीवन था ?
पहले तुम अपना बीकर थर्मस साइड करो और ध्यान से सुनो नागेश्वर बाबू - मैंने मजाकिया लहजे में कहा
जिस स्थल पर हमलोग वनभोज किये थे उसी स्थल पर पिछली बार के हैप्पी न्यू ईयर का वनभोज अपने स्थानीय मित्रों के साथ किये थे। और उस वनभोज में हम सभी जमकर देशी मुर्गा और पुलाव का लुत्फ उठाये थे। और बची खुची मुर्गा की टंगरी मैंने अपने ही हाथों से उस झाड़ी में फेंक दिये थे, वह अस्थि अवशेष और कुछ नहीं बल्कि देशी मुर्गा की टांगें है। इतना सुनते ही वह कुछ झेंप सा गया फिर आधे मिनट की चुप्पी के बाद हम दोनों जोड़ से ठठाकर हंस पड़े थे।
बड़े कमीना हो यार ,बस इतना कहते ही उसने फोन काट दिया। बरसों पुरानी उन्मुक्त हंसी वापस आ चुकी थी। साथ लिये सेल्फी का फ़ेसबुक रिमांडर बता रहा है की हड्डी वैज्ञानिक मित्र से मिले भी 365 दिन हो चुके हैं और बचपन के मित्रों के साथ की उन्मुक्त हंसी विलुप्त होने वाली हंसी के श्रेणी में नहीं आता है।