ज़िन्दगी फिसलती गई
ज़िन्दगी फिसलती गई
ज्यों ज्यों उम्र बढ़ती गई
त्यों त्यों नादानियां घटती गई
कुछ मजबूरियां तो कुछ जिम्मेदारियां जुड़ती गई
हो गई ये इस कदर हम पर हावी,
कि बस ये उम्र बढ़ती गई और ज़िन्दगी ये घटती गई
रख अपने सपनों को ताक पर
जिम्मेदारियों में बस ये उम्र चलती गई
खोया प्यार भी जो, पाया था
बस लेकर उसका नाम, ज़िन्दगी ये कटती गई
ज़िन्दगी ने मजबूरियां कुछ ऐसी बुनी
बिछाकर जाल जिम्मेदारियों का,
उम्र उसमें बस फंसती गई , ज़िन्दगी रेत सी हाथ से फिसलती गई।