व्यथा
व्यथा
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कितने ही उपमा अंलकारों से सजा लीजिये
कोई भी पर्यायवाची चाहे लगा लीजिये
कुछ शब्द हैं जो वापस लौटते नहीं हैं
दिल पर चुभो कर अनगिनत किरचें
पत्थर से बन जाते, पिघलते नहीं हैं।
कितने भी सम्मान और प्रेम से सींच लीजिये,
कुछ रिश्ते दिल से जुड़ते ही नहीं हैं
कितना भी हो आप में दिल जीतने का हुनर वे
पत्थर से बन जाते, पिघलते नहीं हैं।
झूठ और फ़रेब की चादर ओढ़े
मोह के धागों से बंधन जकड़ लेते है
भावनाओं के भँवर में उलझा कर
पत्थर से बन जाते, पिघलते नहीं हैं।