वसुधैव कुटुंबकम
वसुधैव कुटुंबकम
उपमा कहाँ तेरी कोई होगी
एक तू जननी है अनमोल,
उदर से जन्मे असंख्य तेरे बाल
जल, तेल, कोयला कहीं तू
है कहीं हीरों की खान.
सीने पर धानी चुनर ओढ़े
जुवार चने की नथनी,
लाल गुलाबी फूल अपार
गेहूँ, बाजरी, धान, खान से
वैभव तेरे अपरंपार ,
गाथा कहती गा रही गुलमोहर की डाल
फूल भँवरे की गुनगुन लगाती
जेवर में तेरे चार चाँद .
नागफनी, कैकटस कंटीले काया कहीं से छिली चर्राइ दिखे कहीं ,
चंपई सी गोरी गुगाल
हरसिंगार के एश्वर्य से सजी धनी ,
तू, रजनीगंधा से मालामाल.
धवल सजीले नीले पीले
फूल देते केसरिया भात ,
कमनीय तेरी काया पर क्यूँ
जगह नहीं सुकून सभर ,
गज भर धरा उपजाऊ
तू बन जा खिले फूल ,
कुछ मानवता के, अपनेपन के,भाईचारे के,
जगह दे अपने उर में माँ भर ले अपनी बाँहें पसार,
वसुधैव कुटुंबकम बने इस जग से मिटे जेहादी भार।
