विरह से हर्ष तक
विरह से हर्ष तक
अद्य पट मेरे मनस् का
व्योम तारों से भरा है।
सोम सा महका है अब तो
हर्ष का मधुवन घिरा है।।
वो गर्त बेला दुर्दिनों की
स्वच्छ निर्मल वक्ष मेरा
कीच से किंचित सना था
प्रिय तुम्हारे आगमन से
अब शिशिर में भी हरा है।
निःसंदेह थी अप्रस्तुति में
अल्प कान्ति पूर्णता भी
और विषाद से युक्त मन
प्रिय सौम्य स्पर्श से अब
विक्षिप्तता से मुक्त हो ये
बेर पतझड़ का झरा है।
थे प्राण भी नि:प्राण मेरे
दिवस में भी तमस् घेरे
थी संसृति सौंदर्यता भी
हृदय को विकल करती
की,क्षणिक आह्वान जो
प्रिय तुम्हारे सु- स्वरों से
हर्ष का श्रावण घिरा है
अद्य पट मेरे मनस् का
व्योम तारों से भरा है।
