तुम मकान की जमीन-सी
तुम मकान की जमीन-सी
मेरे गांव में एक छप्पर वाला मकान था
उस मकान को जब भी मैं देखता था
अक्सर मैं न चाहते हुए भी उसमें ख़ुद को पाता था!
मेरे मकान के उस खपरैल छप्पर को चीरते हुए...
कुछ किरणों का टुकड़ा...
कई छोटे-छोटे सूरज बनाकर
मेरे मिट्टी वाले ज़मीन को सौंपती थी...
उस मिट्टी वाली जमीन-सी वह भी थी...!
उस मिट्टी वाली जमीन को,
छोटे-छोटे सूरज मिलते ही,
ऐसा लगने लगता था कि,
उसे अब किसी छप्पर की ज़रूरत नहीं!
और वह उन छोटे-छोटे सूरज को खुद में,
लिपटा पाकर मदहोशी के साथ,
छप्पर का ही उपहास उड़ाने लगती!
और उसके इस बर्ताव को देख,
मेरे घर के बाहर वाली जमीन रोती थी,
उसे पता था छप्पर का महत्व..!
मेरे गांव में एक छप्पर वाला मकान था...!
मेरे गाँव में कल तेज आंधी आई थी
जिसमें सबका घर बच गया था
लेकिन, उस जमीन का घर उजड़ गया था
प्यार से बनी दीवारें बिखर गए थे
घर का जो छप्पर था
उसे इतने थपेड़े लगे कि,
वह किसी काम का न रहा..!
वह जमीन बेघर हो गई थी,
सामने वाली जमीन की जैसी !
आज कोई उससे लिपटने,
छोटे-छोटे सूरज नहीं आया था !
सुना हैं, अब सबसे ज्यादा छप्पर की कमी,
उस जमीन को ही खल रही हैं...!
औऱ सामने वाली जमीन अब,
उसपर ख़ूब हँसा करती है...!
मेरे गांव में एक छप्पर वाला मकान था...!!
