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S Ram Verma

Others

3  

S Ram Verma

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तृप्ति !

तृप्ति !

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तुम्हारी तृप्ति मेरी

अभिव्यक्ति में छुपी है

मेरी तृप्ति एक तुम्हारे

ही सानिध्य में छुपी है


तुम्हें तुम्हारी तृप्ति सुबह  

आँख खोलते ही मिल जाती है

मेरी तृप्ति रातों में करवट

बदल-बदल कर जगती है  


तुम्हें तुम्हारी तृप्ति मेरी

महसूसियत से मिलती है  

मेरी तृप्ति तुम्हारे पीछे-पीछे

दौड़ती भागती बैरंग लौट आती है  


तुम्हारी तृप्ति तुम्हारे चारों ओर

फैले शोर के नीचे दब जाती है   

मेरी तृप्ति तुम्हारी दहलीज़ पर

तुम्हारा दरवाज़ा खटखटाती है


लेकिन मैंने तो कहीं पढ़ा है   

तृप्ति तो केवल तृप्ति होती है

फिर क्यों तुम्हारी तृप्ति और मेरी 

तृप्ति अलग अलग जान पड़ती है !


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