तकता है
तकता है
लुटा शहर ऐसे अमन को तकता है
आंधियों मे चिराग़ जैसे लौ को तकता है
होश आये बेख़ुदी से तो मांगू दुआ
आसमां मेरा मुँह क्यों तकता है
जब वो राज़ी हुआ गिला भुला कर
बस कोई शिकवा मुँह को तकता है
वो गया था कसम ख़ुदा की खाकर
बे ईमान फिर भी गली को तकता है
ज़हर को उमर भर पीता रहा देखो
फिर भी मुँह ज़िन्दगी का तकता है
आवाज़ तो न थी उसके नाम की मगर
फिर भी ख़त के पते को तकता है
दिल मे हैं ग़ज़ल की तंग गलियां
दीवार पे तेरा नाम तकता है
मौसमों मुझको नाम दो बरसात
जो क़तरा ऐ वफ़ा को तकता है
दिन हैं शायद रुख़सती के क़रीब
आइना मुँह को तकता है
इश्क़ को गर मयस़सर नहीं वफ़ा
ग़म साक़ी को मैकदे मे तकता है
तेरी मेरी ख़िलाफ़तों मे रक़ीब
एक मासूम मुँह को तकता है
चलो जावेद मना लो, रात गुज़री
वो अब भी सहर को तकता है
