तहजीब
तहजीब
प्रिय ! तुम्हारे लिए मैं अपना
घर-परिवार छोड़कर
कभी भी इस घर की दहलीज
ना लांघने की तहजीब लेकर आई थी ।
इस घर में बड़ा रुलाती थी,
मेरे स्वछंद सांसों पर बंदिशें
और लाडो-लाडो का लाड-दुलार
मगर रिश्तों को निभाने की
तमीज लेकर आई थी ।
बड़ी कोशिशों के बाद भी
वह रिश्ते बन नहीं पाए मेरे
जो तुम्हारे दिल के करीब
तुम्हारे अपने थे ।
जिन्हें दिल अजीज बनाने की
चाहत लेकर आई थी ।
कद्र नहीं जानी तुमने मेरे
नि:स्वार्थ त्याग 'औ' इबादत की
कदम-कदम पर सिर्फ ताना-उलाहना था
यह नाचीज़ भी क्या औकात लेकर आई थी ।
वक्त बदला-बदली वक्त की चाल
बदले सरगम के सुर और ताल
तुम तो हर घड़ी-हर हाल
इन खूबसूरत रिश्तों को
एक सूत्र में संजो कर रखने की
सौगात लेकर आई थी ।
जब कठिन डगर में
डगमगाए हमारे कदम
उनसे जूझने का तुम
गजब का विश्वास लेकर आई थी ।
भले ही कुछ देर से जाना
तुम्हारे बिना हम आधे-अधूरे थे
तुम यह कैसा एतबार लेकर आई थी।