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Archana kochar Sugandha

Others

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Archana kochar Sugandha

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तहजीब

तहजीब

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प्रिय ! तुम्हारे लिए मैं अपना 

घर-परिवार छोड़कर 

कभी भी इस घर की दहलीज

ना लांघने की तहजीब लेकर आई थी । 


इस घर में बड़ा रुलाती थी, 

मेरे स्वछंद सांसों पर बंदिशें  

और लाडो-लाडो का लाड-दुलार 

मगर रिश्तों को निभाने की 

तमीज लेकर आई थी ।


बड़ी कोशिशों के बाद भी 

वह रिश्ते बन नहीं पाए मेरे 

जो तुम्हारे दिल के करीब 

तुम्हारे अपने थे ।

जिन्हें दिल अजीज बनाने की 

चाहत लेकर आई थी । 


कद्र नहीं जानी तुमने मेरे 

नि:स्वार्थ त्याग 'औ' इबादत की 

कदम-कदम पर सिर्फ ताना-उलाहना था 

यह नाचीज़ भी क्या औकात लेकर आई थी । 


वक्त बदला-बदली वक्त की चाल

बदले सरगम के सुर और ताल 

तुम तो हर घड़ी-हर हाल 

इन खूबसूरत रिश्तों को 

एक सूत्र में संजो कर रखने की 

सौगात लेकर आई थी । 


जब कठिन डगर में 

डगमगाए हमारे कदम 

उनसे जूझने का तुम 

गजब का विश्वास लेकर आई थी ।


भले ही कुछ देर से जाना 

तुम्हारे बिना हम आधे-अधूरे थे 

तुम यह कैसा एतबार लेकर आई थी। 



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