तेरे नाम से उलझ कर
तेरे नाम से उलझ कर

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कुछ सपने थे जो बिखर गये
कुछ अपने थे जो बिछड़ गये
ये ज़िंदगी क्या है ? एक सूखा
हुआ पेड़ ही तो है
जो एक हवा का झोंका आये
और गिर जाये
क्योंकि इक ना इक दिन
सब को ही इस ज़िंदगी की
रेलगाड़ी से
उतर का चाँद सितारों में खो
जाना है
अब जाना ही है इक दिन तो
क्यों ना हम इस ज़िंदगी को ही
तेरे नाम से उलझ कर जी ले
कम से कम तू नहीं होगी इस
सफर में तो तेरी बातें तो होंगी
जो किसी रोज़ तुम से हुआ
करती थी..