तबदील
तबदील
पड़ी कुछ यूँ दरारें कि
रिश्ते दलीलों में और
घर मकानों में तब्दील हुए।
हृदय के भाव अब
भविष्य की संभावनाओं
में हैं तब्दील हुए।
भाव विभोर हृदय
न जाने कब संभावनाओं
की सोचने लगे।
दर थे घर जो कभी
मकान में तब्दील होने लगे।
दरार लिए खड़ा
वो टूट-सा मकान
न अब तेरा और न मेरा है।
घर बंटा-सा और
तेरा-मेरा वो हिस्सा
क्यों आज दोनों ही
से छंटा-सा है?
क्यों आज रिश्ता
हमारे लिए सजा सा है?
और जो है यही सच
तो फिर क्यूँ कुछ नया- सा
तेरी-मेरी पलकों पे सजा-सा है?
सजावट के इस खेल में
उस नन्ही सी जान का
जीवन भला बना
क्यों सजा-सा है?
घटते-घटते हम
कब इतने घट गए
अपने ही अंश से देखो
हैं कैसे छंट गए
देखो वो अबोध बाँह फैलाये
अब भी खड़ा-सा है।
पड़ी कुछ यूँ दरारें कि
रिश्ते दलीलों में और
घर मकानों में तब्दील हुए।
