स्वप्न
स्वप्न
कल रात स्वप्न अनोखा था
घर पर उत्सव का मौका था
थककर मैं चूर हुआ ज्योंही
सपने में हुआ सुन्दर धोखा था।
पेजन की छन छन सुनी
जो मन को झँकॄत कर गई
आलिन्द निलय रुदन करें
वो रोता उनको छोड़ गई।
स्पर्श बदन का ज्यों हुआ
मन अब की नींद उड़ गई
एकटक निहारूँ उसको मैं
मेरी स्वप्न सुंदरी मिल गई।
मन मे अरमान अनेको उठ रहे थे
विचार सागर में गोते खा रहे थे
लहू अब मेरा जम सा गया था
वक्त भी उस वक्त ठहर गया था।
अबकी उम्मीदें सारी टूट हुई
मुझसे आज भूल फिर हो गई
जिसका कर रहा था दीदार
वो तो था स्वप्न का गुब्बा।
पल में वो छूमंतर हो गई
अबकी आंखों की नींद उड़ गई
हृदय को कचोट वो चली गई
फिर इंतजार में मुझे छोड़ गई।
करूँ जिसका रोज सपने में दीदार
वो छोड़ गई कहानी फिर अधूरी
अब तो काटे ना कटे निश-दिन
पलभर को आजा फिर से स्वप्न सुंदरी।