सुमुखि सवैया
सुमुखि सवैया
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बिसारि दियो जबते बृज को हरि मंद समीर जलावति है ।
न शीत लगे तन कौ मन कौ यह शीत सदा भरमावति है ।
अधीर भयो, सिगरा बृज ब्याकुल, धीर न कोउ धरावति है ।
कि लौटि चलौ हरि गोकुल को सिगरी बृज भूमि बुलावति है ।।