सत्तर पार की मेरी माँ
सत्तर पार की मेरी माँ
कुछ अजब सी हो गयी है
सत्तर पार की मेरी माँ।
बूढ़े से शरीर में एक बच्चे को पालती
अपने बालों की चाँदनी में कुछ उलझी सी मेरी माँ।
बेज़ार है वो अपनी जमा पूँजी से लेकिन
गिन गिन के बटुए से नोट निकालती मेरी माँ।
वक़्त पे जिसको एक धोती न थी मयस्सर
आज साड़ियों के ढेर से परेशान मेरी माँ।
खुद के अरमानों की चिता पे बैठी
हमारी ख़ुशियों में सुख ढूँढ़ती मेरी माँ।
हँसती है वो मुस्कुराती है वो
हमारी मुस्कुराहट को ओढ़े है मेरी माँ।
नाती की शादी के सपने संजोती
अकेले में सोहर गुनगुनाती मेरी माँ।
यूँ तो बिखरे हैं रिश्ते हर ओर
फिर भी एक काँधे को तरसती मेरी माँ।
बरसों से अमावस को तन पे लपेटे
एक उजारे पाख को तरसती मेरी माँ।
हारी नहीं है फिर भी बेस्वाद से जीवन को
नमक छिड़क कर निगलती मेरी माँ।
