सिरहाने ख्वाब परे ..
सिरहाने ख्वाब परे ..
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सवा पहर का रात वो
वक्त टूटी, नींद छूटी,
आवाज दे गए थे शायद,
देखा सिरहाने कुछ लब्ज थे पड़े,
गुनगुनाये तेरे, कह गए बात कुछ।
बीती रात का भ्रम सही या,
या सुबह होने का सच था खड़ा।
चले गए थे, ख्वाब के तरह,
वो ख्वाब जो टूटता है रोज,
संवर जाता रोज अपने टुकड़े सहेज के,
फितरत सी है उसे टूट जाने की,
आदत सी चुप हो जाने की।
फिर भी क्यों इंतजार है उसे रात का,
कुछ भूली बिसरी बात का,
जो भले तोड़े उसे, छोड़े उसे।
फिर पहर रात की होने को,
एक ख्वाब खड़ा फिर सजने को।
