शुब्बाक(खिड़की)
शुब्बाक(खिड़की)
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खिड़की तो हर घर में भाई,
सबके मन पे है छाई।
कहीं तो यह शुब्बाक बन जाती,
कभी तो विंडो कहलाती।
हवा और प्रकाश लाकर,
ये जीवन की बगिया महकाती।
कभी घर पर बैठे-बैठे,
बाहर का है सैर कराती।
तन में भी है कई झरोखें,
ज्ञानेन्द्रियाँ ईश्वर के देन अनोखे,
ऐ मनुष्य !
काया के इन शुब्बाक को तू खोल,
मन में नयापन तू घोल।
हर तरफ कांति है छाई,
खिड़की तो हर तन मे भाई।