शीर्षक
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कविता तब नहीं आई
जब आमंत्रित किया गया उसे,
और विषय चुना गया जब।
लेकिन जब नेह का मेह बरसा
और जब भावों के
हल्के झोकों ने दुलारा,
तो पतझड़ से
खाली हुई शाखाओं पर
उग आए नए शब्द,
नए अलंकार, नए रूपक
और गढ़ दी मिलकर सबने
नई कविताएं।
तुम्हें परिभाषित करता
उन्हीं कविताओं का
शीर्षक बन गया हूँ मैं।