सहचरी प्रकृति
सहचरी प्रकृति


पुरवा आई मतवाली
मिलने को आया बसंत
महक उठी हर क्यारी क्यारी
खेल रहे अंग संग
प्रकृति हो उठी मनोरम
भरा प्रेम का रंग
दोनों के अंग संग होने से
बजाए मेघों ने मृदंग
तड़ित उतरी आकाश से
ज्यों अप्सरा लुभावनी
झटक कर काले केशों को
बिखराती है पानी
हुई मनोरम धरती देखो
कैसा अनुपम दृश्य
सतरंगी नदिया का पानी
करता अवनी को स्पर्श
मन करता गगन को चूमूँ
मेघों में छिप जाऊं
हरे रंग की चादर बनकर
धरती पर बिछ जाऊं
मधुर स्वरों की कोयल बनकर
प्रेम गीत अब गाऊं
इन फूलों का रंग बनूं या
ध्रुव तारा हो जाऊं