सफ़र.... घर से मकां तलक
सफ़र.... घर से मकां तलक
जब से हाथों से तेरा हाथ सरका है
जब से सुनहरा तेरा साथ सरका है
ये जो घर था मकां हो गया है.....
अंगुलियों के छल्लों की भीगी जुदाई
दगा दे गई ज्यूँ ख़ुदा की खुदाई
जो मूरत था पाषाण हो गया है.....
ये जो घर था ......
नन्हों की मस्ती वो शैतान किस्से
अपनी सी सूरत के अपने वो हिस्से
वो बचपन परेशान हो गया है....
ये जो घर था ......
सजाया था जिसको कभी हमने मिल के
दरवाजे खुले थे सदा ही दिल के
रेत और मिट्टी का सामान हो गया है....
ये जो घर था .......
हो सके तो लौट आओ बाहों के घेरे में
खिला दो ज्योति फिर इस अंधेरे में
वीरान ये बागबान हो गया है......
ये जो घर था मकां हो गया है.....
