रूठ गई
रूठ गई
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मान गई ,
तेरे हर नाज़ुक पल को जान गई
तेरा मौन भी भाँप गई
खींची खींची सी नामुमकिन सी,
किस सांचे में ढल गई
क्यों कर इतनी उलझ गई
खोई खोई सी रह गई
पूरी ही बदल गई
टूट सी गई है
बिखरी बिखरी हो गई है
जिंदगी का कोई संकेत नहीं तुझ से
किस कदर रूठ गई है तू खुद से।