रधिया
रधिया
मर-मर कर
जीने का
उपक्रम करती है रधिया,
तगारी के संबल से
आठ जनों की भूख को
आश्वस्त करती है वह !
बल पड़ती रीढ की मालकिन
शर्म-शाइस्तगी से
सजाती रहती है
गिट्टियां
तरल कोलतार में
मरणासन्न रधिया
तन्मयता से !
संवेदनाएं
मर चुकी है सड़क की
पर कोलतार की भूख नहीं मिटी !
लाचारगी
पसरी रहती है आस-पास,
भूखहा अंधियारा
गहराता रहता है
आंखों के आगे...
गिरा देना चाहता है
जड़-प्रायः रधिया को
पर मैले-कुचेले
नंग-धडंग बच्चे
दारूखोर पति के हाथों
पिटते और भूख से त्रस्त हो
रिरियाते
तैर जाते हैं
चुंधियाते कोर्णिया में
थाम लेते हैं कलई,
‘परिवार-कल्याण’ का मुद्दा
लगा देता है उसे
दुगूने उत्साह से
तगारी उठाने में
ठेकेदार
ताकता रहता है टुकुर-टुकुर
ठण्डे जिस्म की
मैली पिण्डुलियों को
और सेकता रहता है
अपने कामी मन को
इस बुझी आग से !
रधिया
अनजान बनी लगी रहती है
धियाड़ी पकाने में,
प्रतिरोध का हश्र
मजूरी से हटना ही होगा,
जानती है भली-भांति
इसीलिए
मजदूरी के वक्त
औरत नहीं
सिर्फ मजदूरन होती है
जमाने की रधिया !!
