पत्र जो लिखा मगर भेजा नहीं
पत्र जो लिखा मगर भेजा नहीं
प्रिय विश्वास!
बहुत दिन हुए नीचे धरती है
और ऊपर आकाश।
अतृप्त तन
विचलित मन
बार बार चकोरी सा
अपने चंदा की ओर
निहारता है और हर बार हारता है।
साल भर से तुम दूर हो
कितने क्रूर हो।
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याद है
जब तुम गए थे बसंत था,
पर मेरे अरमानों का अंत था।
कामाग्नि की उद्दीपक कोयल
कूं कूं करती थी,
और मेरे मन में सखियों के लिए
डाह भरती थी।
मासूम कोपलों के बीच
रसभरी कलियों का यौवन झांकता था,
मेरी सहनशीलता, मेरा धैर्य आंकता था।
शीतल मंद समीर का बहना
कदम्ब का फूलना और हंसते रहना,
उन पर लदे हुए मकरंद को
मदांध भोंरों का मस्ती से पीना
और पी पी के जीना,
गदराये आमों का बांकपन,
नये पल्लवों और प्रसूनों का आगमन,
मेरे लिए परीक्षा की घडी थी,
और सचमुच मुसीबत बड़ी थी।
तब जबकि
दोपहर में सूर्य तपता था
आंधियां चलती थी,
रस का लोभी भौंरा अपनी सदा संघातिनी
कलियों को छोड़कर
कमल कली की ओर दौड़कर,
भौंरी सहित उसमें धँसना चाहता था,
और धँस जाता था फंस जाता था,
ऐसे में मेरा कमजोर मन, तन
चाहता था आलिंगन,
लेकिन मजबूर था तुमसे दूर था।
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बसंत गया तो
गर्वीला ग्रीष्म आया था
ऊपर से नीचे तक
जलाने का सामान लाया था।
धुंआधार धूल उड़ती थी
दिन काटे नहीं कटते
पहाड़ बन खड़े थे कैसे हटते।
लू क्या चलती थी
आग की लपटें मचलती थी
विरही मानवों को खलती थी।
मछलियों की तड़पन बढ़ गई थी
जल से विछोह एक मुसीबत पड़ गई थी
चंदन के लेप से शांत न हो
ऐसी तपन में बन बन
कामाग्नि से बेहाल गजदल डोलते थे
और बेजुबान होकर भी बोलते थे।
पथिकों की वधुटियां, अपलक प्रीतम का
उतना ही इंतजार करती थी,
जितना प्यार करती थी।
ऐसे में सब
दुख भूलकर
जीने का परमानंद उठाते हैं
संयोंग को जिंदगी में लाते हैं।
बिना वियोग जब जीना असह्य रहे
तब वियोग में कैसे किया होगा
अमृत की आस लिए
जहर किस तरह पीया होगा ?
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तब आई ऋतु पावस की
प्रकृति श्रृंगार की और मानवी प्यार की।
काले बादलों का घिर घिर आना,
कभी तरसाना कभी बरसना
मोरनी का शोर, मोर का नाच,
दादुर की टर्र टर्र,
पपीहे की पीयू पीयू,
बड़ी मुश्किल थी मेरी कैसे जीयूं।
झरनों की अंगड़ाई अंग अंग में आ गई थी,
सावन की फुहारे जवानी जगा गई थी,
गौरा बदन पानी में जलता था,
अलबेला मन आहें भरता था,
सियाह डरावनी रातों में
जब बिजलियां कड़कती थी,
तन मन कांप जाता था
नस नस फडकती थी,
बड़ी मुश्किल से रात जाती थी,
तब कहीं जा के नींद आती थी।
सरिताएं समुद्र से संगम हेतु
बाबली बन रही थी
तालाब के सूखे प्यालों में
लबालब मस्ती छन रही थी,
लताएं पेड़ों से निपटने में व्यस्त थी,
हरीहरी हरियाली की नजरें अभ्यस्थ थी,
कोई दिगम्बर नहीं बचा था,
धारा गीत गा रही थी और मुझे
पल पल तुम्हारी याद आ रही थी।
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पावस के बाद आई
शरद मतवाली ऋतु एक निराली,
जिसकी शुभ्र चटक चार दिन की
चांदनी का लाभ कौन नहीं उठाना चाहेगा,
जो दूर है प्रिया से जरूर पास आएगा।
मैंने भी सोचा था, पर तुम नहीं आये।
अधरामृत पान की बेला में
अमृत अछूता रहा स्नेह चूता रहा,
मन उमंगों से भरपूर था,
पर मिलन ईश्वर को नहीं मंजूर था।
चन्द्रमा चमक रहा था दमक रहा था,
काम ज्वाला नस नस में समा जाती थी,
तुम्हारी याद बार बार आती थी।
चंद्रमा अपनी सोलह कलाओं से
अट्ठारह वनस्पतियों का सिंचन कर रहा था,
मन में उमंग हृदय में प्यार भर रहा था,
कामोद्दीपक
शुभ्र रात्रि का एक एक पल
वियोग में एक एक वर्ष से कम नहीं था,
एक तुम न थे
और कोई गम नहीं था।
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शरद के बाद हेमंत की बारी थी,
विरह की रातें पर बहुत अंधियारी थी।
दिवाकर का दर्प मंद पड़ रहा था
दिन छीज रहे थे शीत बढ़ रहा था।
प्रगाढ आलिंगन का समय यूं ही गुजर रहा था,
न जीने में थी न मरने में
किस्मत भी अजीब नाटक कर रहा था।
वियोग में मैं तब ऐसे जल गई थी,
जैसे पाले से कुमुदनी।
बगैर चांद के क्या रह सकती है चाँदनी।
ऐसे मौसम में या तो
गिरि कंदराओं में समाधिस्थ,
योगियों को ही सुख मिलता है,
या सुवासिनी सुन्दरियों की सेज पर
भोगियों को ही सुख मिलता है।
प्रियवर
नारी शरीर उत्तम तपोभूमि है,
रोमावली पुष्पों के सम्मान है,
क्या इसका ध्यान है ?
उत्तुंग शिखरों के बीच प्रतिपल,
सहज श्रृंगार का स्त्रोत बहता है,
क्या कोई उससे दूर रहता है ?
तपोभूमि में एक
विरह व्यथा की धूनी भी जल रही है,
आग की लपटें निकल रही है,
यदि धूनी की ओर ध्यान नहीं दिया गया,
तो बहुत संभव है वक्त निकल जाए,
और तपोभूमि ही जल जाए।
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प्रियवर प्यारे बिना तुम्हारे
जिन्दगी भार थी,
हेमंत गई तो शिशिर तैयार थी।
वायु का वेग बढ़ाव पर था,
शीत घट रहा था उन्माद चढ़ाव पर था।
अम्ल, मधुर, तिक्त और लवण रस का स्वाद
अधिक बढ़ गया था,
सोने में सुहागा पड़ गया था।
यौवन के गहन वन में स्नेह की जलधार आई थी,
तुम्हारी याद लाई थी।
युग यौवन उत्तुंग शिखर से तन गए थे,
श्रृंगार बेलबूटे बन गए थे।
ऐसे वन का संरक्षण सिंहनर ही कर पाता है,
अन्यथा
काम रूपी हाथी को
उपद्रव ही उजाड ही भाता है।
सोचिये मदमस्त ऋतु में मैंने
यौवन वन को किस तरह बचाया होगा,
अपने आप पर जुल्म ढ़ाया होगा,
अब जबकि पुनः बसंत आने को है,
गीत कोकिला गाने को है,
अविलंब दूरियां पाटकर,
"अनन्त" बंधन काटकर,
विरह का गम मिटाईए,
चले आईए चले आईए।
-तुम्हारी श्रद्धा
