पतंग मेरी परदेशी हौ चली..
पतंग मेरी परदेशी हौ चली..
पतंग मेरी परदेशी हो गयी,
न जाने किस ओर चली गयी,
हाथों में रहे गयी डोर उसकी
न जाने कैसे कट गयी।
हिचकोले खाते खाते,
हवाओं के संग खेल रही थी,
मस्ती में चूर वो सबसे,
आँख मिचौली खेल रही थी,
हर लहर हवाओं के अल्हड़पन की,
उनको छू कर निकल रही थीं ,
वो शरमा के थोड़ा सा नीचे झुक रही थी।
रफ़्तार उड़ान की, हल्की हल्की बढ़ रही थी,
अपनी धुन में वो,
एक रिदम में उड़ रही थी,
बुलंदियों को छूने में वो,
चकनाचूर हो रही थी।
अपनी रफ़्तार को,
और तेज, और तेज बढ़ा रही थी,
गुरुर मे अपने वो,
रिदम खो चुकी थी ।
आस पास के नज़ारो को,
अनदेखा कर रही थी,
सारी पतंगों से वो घिर चुकी थी,
कभी यहाँ से वार तो कभी वहां से वार
वो डोर की धार से, तार तार टूट रही थी,
टूट के वो पेड़ों में फंस कर
जाने वो कहाँ गिर के पड़ी थी,
डोर के कान्हे से,
बँधी वो मेरे हृदय से थी।
पतंग मेरी परदेशी हो गयी,
न जाने किस ओर चली गयी,
हाथों में रह गयी डोर उसकी ,
न जाने कैसे कट गयी।
न
