प्रकृति की चीख....
प्रकृति की चीख....
प्रकृति को क्रोध में चीखते देखा है कभी…?
मानों उसे अपने भीतर के गुबार को निकाल फेंकने की लालसा हो…
जैसे अपने भीतर उसने अनगिनत वेदनाओं को समेट रखा हो…
मानों व्यथा की वे सिलवटें जैसे ही खुलेंगी…
सारा जहां उसके शोक में डूब जाएगा…
कभी तेज बारिश की कड़कती बिजली पर गौर किया है..?
मानों चीख- चीखकर अपनी पीड़ा व्यक्त कर रहीं हो…
वैसे ही जैसे नदियों का वेग कभी बाढ़ बनकर…
अपनी विकरालता में सबकुछ निगलना चाहती हो…
कभी महसूस किया है हिमखण्डों का उनके अवशेष त्यागने का कष्ट…
मानों अपने कराहने की अनकही दास्तां बयां कर रही हो…
हमने अपनी बदनियती और स्वयं लाभ की कामना में…
प्रकृति के शांत आवरण को स्वत: नष्ट किया है…
शायद इसीलिए जब भी प्रकृति के सब्र का बांध टूटता है ना…
तब वह बिना किसी परवाह के… बेबाक होकर…
अपने अंदर समेटे सारे तकलीफ़ों को निकाल फेंकती है…
मानों वह मानवजाति से… अपने पर किए गए…
हर एक सितम का जवाब चाहती हो…
पर क्या हममें अभी भी इसे समझ पाने की चेतना शेष है…?