प्रकृति के रंग
प्रकृति के रंग
र्निझर बहता प्रपातों से जल,
सूरज किरणों से प्रज्वलित
होता जन जीवन
चहूं ओर छाया पक्षियों का कलरव
सुवासित पुष्पों से महकता उपवन
प्रकृति के आंगन में हर पल हो
रहा सर्मपण.
चारों ओर छाईं है हरियाली है
घटा मतवाली है, परंतु
संसाधन के उपभोग की आपा धापी में
किस तरह बदले प्रकृति के रंग
ना कोई मानव कर सकता अब
स्वच्छंद विचरण.
जंगलों में लगी आग,
तो कहीं सुनामी ने कहर ढाया,
कहीं सुखी बंजर धरती ने लेली
किसानों की जान
इतना कम था, जो एक नया विषाणु आया
उसने तो फिर उत्पात मचाया
हे मनुष्य! अब भी ना समझ पाया
ईश्वर की माया
वृक्षों को काटा, अपना घर सजाया
छेड़खानी की तूने प्रकृति के संग तो
अब उसने भी तांडव रचाया।