प्रीत की डोर.....
प्रीत की डोर.....
प्रीत की डोर.....
कुछ ही पलों की मुलाकात में,
एक रोज यू ही
जुड़ गई थी प्रीत तुमसे..
दिन ब दिन गहरी होती रही ए प्रीति
बढ़ती रही
अचानक एक दिन
न जाने क्यों
तुमने उखाड़ दिया
जड़ से
इस गहरी जमी प्रीत को
आह भी न कर पाई
बस अंदर ही अंदर
इस उखड़ने की पीड़ा
सालती रही मन को..
कुछ न था कहने सुनने को
बस बची थी कुछ
बीते लम्हों की यादें
कुछ तुम्हारी पुरानी बातें
याद आया
अक्सर कहा करते थे तुम
ए हमारे प्रीत की मजबूत डोर है
जिसका टूटना कठिन है।
आज मैं समझी
कि तुम्हारे लिए
ए बस एक डोर थी,
प्रीत की डोर
जिसे बड़ी आसानी से
एक झटका देकर तोड़ दिया तुमने..!
पर मैं क्या करूँ ?
मेरे लिए यह कोई डोर न थी
केवल प्रीत थी
केवल प्रीत..
ह्रदय में धड़कनों से जकड़ी
जिसे कुरेदना भी संभव न था
मेरे लिए ..
इसीलिए
आज ये अंतस की पीड़ा है।
सोचती हूँ
मैं भी तुम्हारी तरह
मुक्त हो जाती
इसे तोड़कर॥..
काश ! मान लिया
होता मैंने इसे
प्रीत की डोर
केवल डोर ..
ए प्रीत की डोर !
