पलाश
पलाश
मैं पलाश हूं
लाल गुलाबी आभा लिए हुए
लाल रंग से बिल्कुल सराबोर
होली आई नहीं कि मैं रंग खेलने को आतुर हो उठती हूं
मैं किसी प्रेमिका के बालों में नहीं गुथी जाती
आजादी मुझे पसंद है इसलिए माला नहीं बनती
बस शाम होते ही
मैं प्रेमी के कदमों तले बिछ बिछ जाती हूँ
हां प्रेमी ही तो है
जो मुझे खिलने को मजबूर करते हैं
मैं शर्म से लाल हुई पड़ी रहती हूं
तब तक जब तक की सूरज की ज्वाला मुझे झुलसा ना दे।
मगर मैं भी बहुत जिद्दी हूं
सच्चा प्यार करती हूँ ना झुलस जाने से लेकर राख होने तक
प्रेमी के कदमों तले पड़ी रहती हूँ
फिर से खिलने के लिए समर्पण के साथ।