पिता
पिता
अधिकांश माँएं बन जाती है पूरी की पूरी माँ,
और साथ -साथ बन जाती है आधी पिता भी,
लेकिन अधिकांश पिता सिर्फ पिता भी नही बन पाते।
हर जनक, पिता नहीं होता वैसे ही
हर पिता जनक भी नही होता,
मगर बन जाता है पिता ,
महसूसता है बच्चों के हर स्पर्श को ,
भावना को ,जिम्मेदारियों को
क्योंकि देखा होता है उसने ,
अपने जनक को पिता बनते हुए,
और उस किरदार को बहुत खूबसूरती से ,
वह अपने व्यक्तितव में उतार लेता है,
महसूस लेता है बच्चों के प्रेम को,
क्योंकि वह जानता है महसूसना,
निश्चलता को,प्रेम को, भावना और स्पर्श को।
जनक बनना एक कामना है लेकिन
पिता बनना एक भावना है।
ये भावना भी वही समझ सकता है ,
जिसे अपने पिता के वजूद को महसूस किया हो ,
या पिता के अहसास को जिया हो।
तिरस्कार , अपमान में पले - बढ़े जनक,
सिर्फ रौंदना ही जानते हैं और रौंद देते है बच्चों का बचपना,
कुचल देते है उनकी कोमल भावनाओं को,
ऐसे जनक, जो हो जाते है हिंसक और विकृत,
अक्सर माँएं कर देती है उनका त्याग,
और करती है हर कोशिश और बचा लेती बचपना,
फिर ये पूरी की पूरी माँएं ,बन जाती है आधी पिता भी,
पिता बनना है तो बनना पड़ेगा आधी माँ भी।