पिंजरा
पिंजरा
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पिंजरे में कैद ज़िन्दगी उड़ने को है बेताब
घुट घुटकर जीना भला किसे है स्वीकार
नारी कितनी बार स्वतंत्र है जीना चाहती
पर कितनी सारी पाबंदियां उस पर हैं लग जातीं
सबकी खातिर अपनी सारी खुशियां दांव पर लगाती
मां, बहन पत्नी बन रिश्ते सारे निभाती
अपने देखे सपनों को वो भी है पूरा करना चाहती
लड़की होने की हर बार उसे याद दिलाई जाती
बदला है युग, पर क्या बदल भी पाया है नज़रिया
कब हटेंगी नारी के जीवन से ये सब पाबंदियां।