फटते हैं हम...
फटते हैं हम...
आज के हालात में
जब परिस्थितियों की मार से हर कोई जूझ रहा है
दैनिक-भोजन के एक सहारे पर
कुछ व्यंग्यात्मक लिखने की कोशिश की है...
!!...फटते हैं हम...!!
पौ फटते ही
फटते हैं हम!
कभी-कभी
कैंची से कटते हैं हम!
हो जाते हैं
तैयार
पिछली शाम बिकते ही
कई बार तो सुबह की जल्दी में
मुक्के से भी पिटते हैं हम!
फाट्ट या फिर भाड्ड
ऐसी किसी आवाज से
कट जाते हैं कई-कई हिस्सों से
ऐसे नाजुक
होते हैं हम!
सच्चाई... थोड़ी सी ये पूरी है
ऑफिस समय पर पहुँचना मजबूरी है!
पहले हमारा इंतकाल
और फिर हमारी
बिना कांधों की आरती का कमाल...
करो तैयार
जला-भून कर,
या फिर हमारे जनाजे को
खाँचों में तरीके-तरीके से दबा-गूँथ कर,
पेट का इस्तकबाल जरूरी है
और आज की सबसे मजबूत ये कमजोरी है!
पहले तो किसी इतवार
या छुट्टी के मौके पर ही
होता था ये हाल हमारा,
पर आज किसके पास भला
है वक्त छुट्टी का?
और है भी वक्त
तो कोई क्यों देखेगा भला
ये तमाशा
तरक्की संग लूटती संस्कृति का?
जिंदगी की दौड़ पर भागते-भागते
कोई सोच नहीं पाता
क्या है आखिर
ये रंग विपत्ति का!
फर्ज के नाम पर पेट भर कर
कर्ज उतारा जा रहा है साँसों का
और उसके सबूत
गवाह हैं हम!
कि अंगरेजी ब्रेड और फास्ट-फूड के
खाली पैकेट हैं हम!
और पौ फटते ही...
फटते हैं हम !!!
