पहाड़ की बेटी
पहाड़ की बेटी
पहाड़ की बेटी नदी
बड़ी बेताबी से
बड़े वेग से
बड़ी उम्मीद से
घर से निकली सागर से मिलने
अपने अल्हड़पन मे
अपने मस्ती मे
अपने प्रवाह मे
सबको समेटते बहाते चल पड़ी
रास्ता पता नहीं
बाधा कदम कदम
फिर भी
रुकी नहीं थकी नहीं
कभी छलांग लगाई
कभी सिकुड़ गई
कभी मुड़ गई
बलखाती लहराती
बढ़ती गई चलती गई
उसकी यात्रा विस्तार में
बहुत कुछ मिटता गया
बहुत कुछ बनता गया
कहीं पुल बना
कही बांध बना
अनवरत यात्रा
न रुकी न झुकी
लौटी भी नहीं
ठिठकी भी नहीं
मगर
सागर को देख सहम सी गई
अपना वजूद खोने का डर
गति को धीमा कर गया
मन में शंका भर गया
लहरों का खुला आमंत्रण
मुश्किल होता खुद पर नियंत्रण
दुविधा,आशंका, झिझक
पहचान मिट जाने का
यात्रा की निरर्थकता का
सागर ने समझा बेताबी में ठहराव को
सागर ने महसूसा उरमय बदलाव को
लहरों ने कहा बढ़ो आन मिलो
सागर में मिलना
पहचान खोना नहीं होता है
स्वयं सागर होना होता है
गागर में सागर नहीं भरता है
सागर में सबका गागर भरता है
सागर का हर बूंद सागर होता है
त्याग अतीत बूंद बूंद सागर होता है
पहाड़ की बेटी अब
नदी नहीं सागर है ।।