पदचिन्ह
पदचिन्ह


मुट्ठी में बंद मेघ मेरे
रूआंसे होकर बरस गये
बेरूखी से मुंह मोड़ कर
गूंजे घिरे तत्काल उमड़ गये
अस्तित्व से अनभिज्ञ
चाल अपनी चल गये
भीतर के हास परिहास से
वैषम्य सारे भूल गये
छलकपट के बूंदों से
अनगिनत सांचे में ढल गये
समर्पण की बंद देहरी से
सर्वस्व मेरा छल गये
खोजना क्या अब निषेधों को
विरोधों को विवश कर गये
देखना अब कौन किसके हिस्से
अभिलाषा श्लेष कर गये
बौछारों के भग्न स्वप्न
मिट कर भी लौट आये
आच्छादित नियति चक्रव्यूह में
हताहत सही कृतज्ञतर लौट गये
बिखेरने से पूर्व मन की बात
अकस्मात तुम तक पहुंचाऊंगा
सांत्वना की अविस्मरणीय यात्रा में
अविश्वसनीय पद चिन्ह छोड़ जाऊंगा