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Archana Saxena

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पछुआ पवन

पछुआ पवन

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कोहरे से आच्छादित है गगन

फिर से चली जो पछुआ पवन 

पर्वत पे बिखरे असंख्य हिम कण

फिर से चली जो पछुआ पवन


नए पत्तों पर देखो तो जरा

ये ओस के मोती फिर बिखरे

श्रृंगार बने ये पुष्पों का

हरियाली दूब पर फिर से बिछे 


श्वेत धवल पर्वत श्रृंखला 

कहीं मन को फिर से रिझाने लगी

ज्यों लवण बिखेरा प्रकृति ने

लावण्यमयी सी लुभाने लगीं


धीमी धीमी बरखा बूँदें 

सिहरन को और बढ़ाती हैं

पर ये अमृत की बूँदें ही

भू पर सोना लहराती हैं


 वृद्ध शज़र इस शीत लहर से

 थोड़ा और ठिठुर सा गया

किस तरह वह इतना प्रकोप सहे

हर पत्ता और सिकुड़ सा गया


ये जो आसमान है धुआँ धुआँ

जाने कितने दिल यहाँ जलते हैं

अगहन की लंबी रातों में

 विरही जन आहें भरते हैं


कहीं खिली धूप संग मुस्काती

माँ की वह ऊन सलाई हैं

पाले से जकड़े हाथों में जो

भरती अपनी गरमाई है


पश्चिमी विक्षोभ ने फिर से जो

द्वारे पर आ दस्तक दी है

हर किसी की वैसी प्रतिक्रिया 

जैसी उसकी मनोस्थिति है.


  



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